16 दिन लगातार एक शहर को जीते हुए आप खुद में एक चलता-फिरता शहर हो जाते हैं। अपनी पीठ पर यादों के मोहल्लों को उठाये हुए। अपने कंधों पर स्मृतियों की नर्सरी उगाए हुए। अपनी आंखों में सरजू के किनारे रात भर जले दिए का काजल लगाए हुए। मालूम नही पड़ता कि हुआ क्या है? मैं अयोध्या को छोड़ आया हूँ या खुद को अयोध्या में छोड़ आया हूं। सच लिख रहा हूं। बहुत भरम सा है। लौटने से पहले देखा था कि सरजू का पानी बढ़ा हुआ था। मालूम नही बारिश का असर था या फिर किसी बेटे को अलविदा कहते हुए मां की आंख भर आई थी। फिर से कह रहा हूँ। बहुत भरम सा है। जिंदगी में कभी भरम नही रखा। दोस्ती की तो जान से। दुश्मनी की तो जान से। मगर अयोध्या ने यह भरम भी तोड़ दिया।
इन 16 दिनों में दिल और दिमाग़ दोनो एक दूसरे से अजनबी हो चले हैं। दिमाग़ दिन-रात खबरों में उलझा रहा और दिल रात-दिन सरजू में डूबा रहा। हालत यह हो गई है कि वापिस लौटा हूं तो दिल और दिमाग दोनो अजनबी से हैं। काफी देर से दोनो को आसपास बिठाकर एक दूसरे की पहचान करा रहा हूँ। दोनो एक ही जिस्म में रहते हुए एक दूसरे को फटी फटी आंखों से देख रहे हैं। एक दूसरे से पूछ बैठते हैं, ‘तुम कौन?’ मैं अक्सर रातों को देर तक जागता हूँ। पुरानी आदत है। रात गहराते ही दिमाग को थपकियाँ देकर सुला देता हूँ और यादों के पुराने लैंप पोस्ट के नीचे दिल को जगा देता हूँ। एक अजीब सा समझौता है दिल और दिमाग में। एक सोता है तो दूसरा जागता है। इसके बावजूद अभी तक एक दूसरे को पहचानते आए हैं दोनों। मगर अब ये सिलसिला भी जाता रहा। अयोध्या ने ये भी भरम तोड़ दिया।
अयोध्या का अर्थ होता है अयोध्य। यानि जिससे युद्ध न किया जा सके। जिसे युद्ध में जीता न जा सके। सच यही है। अयोध्या को आज तक कोई जीत नही सका है। इतिहास ने इसे बार बार साबित किया है। पर अयोध्या तो जीत लेती है न! उसका क्या किया जाए? अजीब चमत्कार है। मैं अयोध्या से वापिस आकर भी अयोध्या में हूं। कभी नया घाट पर पैर फैलाकर सरजू में उतर जाता हूं, कभी राम की पैड़ी पर आंखे फैलाकर सरजू को भीतर उतार लेता हूं। आंखों में पहले से ही एक नदी बैठी है। अब सरजू भी भीतर है। कहीं सैलाब आया तो स्मृतियों के कितने ही घाट डूब जाएंगे! अजीब सा डर है भीतर ही भीतर।
मनु की बसाई इस अयोध्या में आज भी कुछ नही बदला है। समय जब भी चलते चलते थक जाता है, सरजू के किनारे सुस्ताने के लिए लेट जाता है। वह आज भी सरजू के किनारे किसी अदृश्य कुटी में लेटा हुआ है। ये आपके ऊपर है कि आप इस कुटी तक पहुंच पाते हैं या नही। पर अगर पहुंच गए तो आंखों से कुछ नही छूटेगा। मनु की अयोध्या के बीज से लेकर विक्रमादित्य की अयोध्या के वृक्ष तक। सब कुछ यहीं है। अमिट। अविचल। अपरिवर्तनीय। राम आज भी यहां राजसिंहासन पर हैं। वे कथाएं झूठी हैं जो कहती हैं कि राम ने गुप्तार घाट पर सरजू के जल में समाधि ले ली थी। वे विमान से स्वर्ग चले गए थे। राम ने इस अयोध्या से अधिक प्यार किसे किया है? वे मर्यादा पुरूषोत्तम हैं। नित नई मर्यादाएं रचते हैं। सो मृत्यु की मर्यादा के मान के लिए उन्होंने ये लीला भी रच ली होगी। कौन कहता है कि वे अयोध्या से चले गए हैं?
मुझे अपने विश्वासों के लिए कभी किसी बाहरी आधार की आवश्यकता नही पड़ी है। जो अहसास किया, उसी को सत्य माना। फिर न कोई रीति आड़े आती है, न रिवाज़। मैने जब जब सरजू किनारे रामधुन में लीन किसी जटाधारी साधू की आंखों में झांककर देखा है, राम को अपनी अयोध्या पर राज करते पाया है। समय के आधार कार्ड पर आज भी राम का पता अयोध्या का ही है। क्या लगता है? क्या सैकड़ों हजारों मीलों दूर से बस, ट्रेन, आटो, टैंपों, पैदल सफर कर अयोध्या पहुंचते लोग किसी नगरी में घूमने आते हैं? क्या वे किसी मेले का भ्रमण करने आते हैं? वे तो अपने राम से मिलने आते हैं और मिलकर जाते हैं। सत्य इतना ही है कि आज भी यहीं रहते हैं राम। मैं जब भी गांव-देहात से आए साधारण लोगों की भीड़ को अयोध्या में कहीं बैठे हुए पाता हूं, उनके पास ठहर जाता हूं। अपने और उनके बीच थोड़ी जगह छोड़कर। वहां राम बैठे होते हैं। उनके भजनों पर झूमते हुए। उनके सोहर पर मुस्कुराते हुए। उनके दुखों को सुनते हुए। उनकी निराशाओं को सहते हुए।
आप कभी समय के चश्माघर में गए हैं? रातों को देर तक जागने के बाद जब गहरी नींद आंखों में झूलने लगती है, उस वक्त आपको एक छोटी सी खिड़की नज़र आती है। इस खिड़की से झांकते ही समय का चश्माघर नज़र आता है। मैं अक्सर यहां से नए नए फ्रेम के चश्में उधार लेकर रातों की तलहटी में उतर जाता हूं। आज भी अयोध्या में राम का इक्ष्वाकु वंश जीवित है। समय के चश्मे से सब नज़र आता है। रघु, दिलीप, अज, दशरथ, राम…. सब के सब अयोध्या में हैं। अयोध्या के हैं। रात बेहद लंबी है। कई दिनो का थका हूं। नींद अब गहरा रही है। कोई कानों में सियाराम कहता जा रहा है। सिया के राम। सिया से राम। जय सियाराम। सुबह आंख खुलेगी तब पढ़ूंगा कि क्या क्या लिख गया हूं? अभी तो मन सरजू के घाट पर रमा हुआ है। गांव की कुछ महिलाएं मंडली जमा कर बैठी हुई हैं। सोहर की धुन धीरे धीरे कानों में तेज़ होती जा रही है- “जनम लियो रघुरइया, अवधपुर बाजे बधइया। राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन। जनमे चारो भइया, अवधपुर बाजे बधइया….” नींद ने अब गिरा दिया है। अब अयोध्या लिख रही है, मैं सो रहा हूं। अभी तक सुनता आया था कि सोते हुए लिखना असंभव है।
अयोध्या ने ये भरम भी तोड़ दिया!!!
(अभिषेक उपाध्याय के एफबी वॉल से। अभिषेक उपाध्याय TV9 Bharatvarsh में Editor हैं।)