रेल हादसों से क्या सीखा हमने …!!

तारकेश कुमार ओझा। एस- सात कोच की बर्थ संख्या 42 व 43 । 12477 पुरी – हरिद्वार उत्कल एक्सप्रेस में यही हमारी सीट थी। जिससे एक दिन पहले ही हम झांसी पहुंचे थे। दूसरे दिन इसी उत्कल एक्सप्रेस के मुजफ्फरनगर में हादसे का शिकार होने की सूचना से मुझे बड़ा आघात लगा। क्योंकि एक दिन पहले इसी ट्रेन में सफर की याद मन – मस्तिष्क में अभी भी ताजा थी। दूसरी बात एक दिन बाद यानी 20 अगस्त को इसी ट्रेन से हमारी खड़गपुर के लिए वापसी यात्रा थी। 18478 हरिद्वार – पुरी उत्कल एक्सप्रेस में इस बार हमारा आरक्षण एस – सेवन कोच में ही 4 और 5 बर्थ पर था। हादसे की सूचना मिलते ही मैं इस बात को लेकर परेशान हो उठा कि इतनी जबरदस्त दुर्घटना के बाद क्या दूसरे दिन हमारी वापसी ट्रेन हरिद्वार से छूट पाएगी। भय हुआ  यदि ट्रेन रद हुई तो हमे रास्ते में बुरी तरह फंस जाएंगे। धड़कते दिल से मैने इंटरनेट में चेक किया तो जवाब नो डिले का मिलता रहा। इससे कुछ आश्वस्ति तो मिली, लेकिन मन में शंका बनी रही कि जिस तरह का हादसा हुआ है, ऐसे में उसी ट्रैक पर वापसी यात्रा मुश्किल है। हालांकि मन को यह सोच कर सांत्वना देता रहा कि विलंबित ही सही लेकिन शायद परिवर्तित मार्ग से ट्रेन चले जिसके चलते सैकड़ों यात्री भारी परेशानी से बच सके। लेकिन दूसरे दिन तड़के फिर इंटरनेट पर चेक करते ही मैं मानो आसमान से धड़ाम से जमीन पर गिरा। इंटरनेट पर ट्रेन रद बताया गया। मैं संभावित मुश्किलों का अनुमान लगाते हुए परेशान हो उठा। क्योंकि कुछ घंटे बाद ही हमारी वापसी यात्रा शुरू होने वाली थी। हादसे के बाद की परिस्थितियों में एक अंजान शहर में भारी भीड़ के बीच पुरानी ट्रेन के टिकट को रद करा कर किसी दूसरे ट्रेन का रिजर्वेशन पाना गुलर के फूल हासिल करने से कम न था। खैर सहृदयी मित्र की तत्परता और इंटरनेट की सहायता से मुझे दूसरे दिन यानी 21 अगस्त की ग्वालियर – हावड़ा चंबल एक्सप्रेस का कंफर्म टिकट तो मिल गया लेकिन  पुरानी टिकट को रद कराने की चिंता कायम रही। मैं अराजकता और भारी भीड़ समेत मन में तरह – तरह की आशंका लिए झांसी स्टेशन पहुंचा। स्टेशन के प्रवेश द्वार पर बड़ी संख्या में खाकी वर्दी धारी महिला व पुरुष पुलिस जवान मौजूद दिखे। लेकिन रेलवे प्रशासन के रवैये से कतई यह नहीं लग रहा था कि एक दिन पहले हुए भीषण हादसे को लेकर महकमे में किसी प्रकार की आपाधापी है। इधर – उधर पूछते हुए आरक्षण काउंटर पहुंचा । इतनी बड़ी दुर्घटना के बावजूद वहां मौजूद आठ काउंटरों में केवल एक पर कार्य हो रहा था। बहरहाल कुछ देर बाद हमें रद टिकट के पैसे तो मिल गए। लेकिन अगली यात्रा को लेकर हमारी चिंता कायम रही। जो चंबल एक्सप्रेस से शुरू होने वाली थी। उत्कल एक्सप्रेस में हुई हमारी शुरूआती यात्रा ज्यादा बुरी नहीं थी। यात्रा के दौरान ट्रेन में  हमें वे विसंगतियां नजर नहीं आई जो साधारणतः हिंदी पट्टी की यात्राओं में अक्सर देखने को मिलती है। अलबत्ता हमारे व आस – पास के डिब्बों के शौचालय काफी बुरी हालत में मिले। कई शौचालयों की कुंडी गायब थी। चंबल एक्सप्रेस से यात्रा का अनुभव और भी बुरा रहा। झांसी से बांदा तक तो ट्रेन ठीकठाक चलती रही। लेकिन चिउकी ( इलाहाबाद ) से मुगलसराय की दूरी तय करने में ट्रेन को पांच घंटे से अधिक समय लग गए। भीषण गर्मी में ट्रेन के मुगलसराय पहुंचने तक सभी यात्री बेहाल हो चुके थे। क्योंकि जहां – तहां रुक रही ट्रेन के कहीं खड़ी होते ही डिब्बों की रोशनी और पंखे दोनों बंद हो जा रहे थे। इस बीच नौबत आने पर शौचालय जाने की जरूरत हुई तो किसी की कुंडी गायब मिली तो कहीं  गंदगी बिखरी हुई थी। टायलटों में पानी भी नहीं था। पड़ोसी डिब्बे के शौचालय में जाने पर उसकी दीवार की हालत देख रोंगटे खड़े हो गए। क्योंकि दीवार के कभी भी दरक जाने का खतरा साफ नजर आ रहा था। मन में ख्याल उठा कि दो दिन पहले हुए उत्कल एक्सप्रेस हादसे के बावजूद क्या हम इतने लापरवाह हो सकते हैं। इस परिस्थिति में मैने तत्काल सोशल साइट्स का सहारा लिया। कुछ देर बाद डिब्बों में सामान्य पानी की व्यवस्था तो हो गई, लेकिन दूसरी समस्याएं जस की तस कायम रही। अलबत्ता आसनसोल और बर्दवान स्टेशनों पर कुछ खाकी वर्दी जवान नजर आए जो यात्रियों को अपने – अपने माल – आसबाब के प्रति सजग रहने के प्रति सावधान कर रहे थे। इस तरह हम जैसे – तैसे अपने गंतव्य तक पहुंच पाए।

(लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

aisshpra 5

Posted in Uncategorized

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *