केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री का खंडन पढ़ रहा था और यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि 97 वकीलों की लॉ-फर्म की ताकत एक महिला पर क्यों? या बाकी पर क्यों नहीं? हिन्दी अखबारों में छपा नहीं और शिकायत अंग्रेजी में है तो शायद आपने पढ़ा न हो या ध्यान नहीं दिया हो – मूल पोस्ट में ‘अपराधी’ का नाम नहीं था और पोस्ट पुरानी है। मुकदमा अब हुआ है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि मूल पोस्ट से पहचान बिल्कुल ही मालूम नहीं हो रही थी। कम से कम जिसके बारे में है उसे तो पता चल ही गया होगा कि आरोप उसी पर हैं। यही नहीं, सोशल मीडिया पर दिसंबर 1999 की लिखी एक रिपोर्ट भी घूम रही है जिसमें नाम नहीं है पर अब पहचान स्पष्ट है। और ऐसे एक दो मामले नहीं हैं।
इसके बाद के भी हैं और इससे साफ है कि अपराधी ऐसी रिपोर्ट की परवाह नहीं कर रहा था और अपनी हरकतें मामला सार्वजनिक होने के बाद भी जारी रखीं। इसके बावजूद मुकदमा एक पर ही करने का मतलब समझना जरूरी है। मुझे नहीं लगता कि यह अवमानना का मामला है। असल में यह इस्तीफा नहीं देने का बहाना है। अकबर पर कुछ नहीं करने के बावजूद जो सब करने के आरोप हैं वो कम नहीं हैं और नैतिकता का तकाजा था कि वे इस्तीफा देकर खुद को निर्दोष साबित करते। उनके खिलाफ शिकायत यही है कि वे अपनी शक्ति – हैसियत का उपयोग यौन शोषण के लिए करते रहे हैं अब दिख रहा है कि वे इसका उपयोग शिकायत करने वालों को डराने और मुंह बंद करने के लिए कर रहे हैं। अदालत से राहत पाने का हक हर किसी को है पर देश में यह जितना मुश्किल और खर्चीला है उसमें इसका उपयोग हथियार की तरह किया जाता है और यहां भी यही हो रहा है।
मीटू जब दुबारा शुरू हुआ तो प्रिया रमानी ने लिखा कि उन्होंने उनका नाम नहीं लिखा था क्योंकि उन्होंने कुछ किया नहीं। और अब मंत्री ने खंडन में उसी को आधार बनाया है कि किया नहीं तो अपराधी कैसे? या अपराध कहां? बलात्कार के पुराने मामलों और उनकी फिल्मी कहानी याद है? कहा जाता था कि बलात्कार की शिकायत करने वाली लड़की मुकदमे के दौरान दोबारा बलात्कार का शिकार होती थी। सार्वजनिक रूप से। बलात्कार के मामलों में एक बहुचर्चित टू फिंगर टेस्ट होता था आदि आदि। और पितृसत्ता प्रधान भारतीय समाज और खासकर उसका पुरुष वर्ग इन्हीं स्थितियों का लाभ उठाता रहा है। सोशल मीडिया के इस जमाने में ऐसी मनमानी पर रोक लगने की आशंका है तो उसे रोकने की कोशिश भी होनी ही थी। अफसोस, ऐसा उस सरकार में हो रहा है जो जिसका नारा बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ है। कहने और साबित करने की जरूरत नहीं है कि यह नारा ही है और पुरुष प्रधान समाज स्थिति बदलना तो दूर, स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि स्थित बदल चुकी है।
अब वो दिन नहीं रहे और निर्भया कांड के बाद बलात्कार की परिभाषा बदल गई है। और छेड़छाड़ यौन उत्पीड़न आदि का दायरा बहुत विस्तृत है। अपराधी के लिए बचना मुश्किल है। सत्तारूढ़ दल के एक बहुत ही दंबग और प्रिय विधायक महीनों से जेल में हैं और प्रिय इतने कि उन्हें जेल में होने के बावजूद पार्टी से निकाला नहीं गया है। इसलिए, यह मान लेना चाहिए कि मुकाबला स्त्री बनाम पुरुष का ही है। यह अलग बात है कि इस मामले में जिन महिलाओं को मुखर होना चाहिए था उनमें से ज्यादातर चुप हैं। हालांकि, यह भी सच है कि भारत में न्याय व्यवस्था का दुरुपयोग लोगों को परेशान करने के लिए भी किया जाता रहा है और उसे ठीक करने के लिए कोई प्रयास होता नहीं दिख रहा है। पुलिस और सत्ता पूरी तरह निर्दोष को भी फंसाती रही है और मुकदमा लड़ना सजा से कम नहीं है। खासकर तब जब बरी होने में वर्षों लग जाते हैं। हाल का मामला इसरो के वैज्ञानिक नम्बी नारायण का है। जासूसी के फर्जी आरोप से बरी होने में उन्हें 24 साल लग गए और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें 50 लाख रुपए की क्षतिपूर्ति देने का आदेश दिया।
ऐसे में अवमानना का अकबर का मामला अदालत में कहां तक जाएगा, कैसे आगे बढ़ेगा और क्या बातें उठेंगी ये सब बात की बात है। फिलहाल तो यह तय है कि जिसने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया उसका अदातल में (मुकदमा लड़ने में) उत्पीड़न होगा। एक ऐसे अपराध को साबित करने के लिए जो उसने कहा है कि कर नहीं पाए और शिकायत यह है कि कर नहीं पाए तो अपराध कहां हुआ। पर सवाल यह है कि जब अपराध नहीं हुआ तो अवमानना कैसे हुई और हुई तो उसमें साबित क्या करना रह गया है। कुल मिलाकर, बात अवमानना कानून पर चर्चा की भी है। पर क्या ऐसा होगा। सरकार चाहती है कि मामला हमेशा के लिए निपटे? आम जनता को वास्तविक स्थिति मालूम है? इसकी चिन्ता है या उसकी प्राथमिकता में यह मुद्दा है? अवमानना कानून के दुरुपयोग पर पत्रकार विनीत नारायण ने एक किताब लिखी है और इसकी चर्चा वैसी नहीं हुई जैसी होनी चाहिए थी। मुझे नहीं लगता अभी भी होगी और जिसकी लाठी उसकी भैंस का राज ही रहेगा।
(वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह के एफबी वॉल से साभार)