अरविंद केजरीवाल की राजनीति के लिये पंजाब एक बड़े सबक की तरह है. गोवा में उम्मीदों के ज्वार का उठना और नतीजे में उनके भाटे की तरह गिरना जमीनी सच्चाई से दूर नहीं था, लेकिन पंजाब में चीजें बिल्कुल अलग थीं. आम आदमी पार्टी ने पंजाब में पिछले डेढ दो साल में जमीनी स्तर पर बहुत काम किया. लोगों में यह भरोसा पैदा कर दिया गया कि पंजाब का अगर कायाकल्प करना है तो “बादलों” को उखाड़ फेंकना होगा. केजरीवाल बार-बार यह भी कहते रहे कि “बादलों” और कैप्टन में अंदरखाने हाथमिलाई है. दोनों मिले हुए हैं. इनसे बचकर. सरकार से लोगों की बेहिसाब नाराज़गी ने आम आदमी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को गांव, कस्बा, शहर में जगह दिला दी. लोगों को ये लगने लगा कि अपना सब छोड़ छाड़कर पंजाब मे डेरा डाले हजारों लोग हमारी बेहतरी चाहते हैं, इनके साथ खड़ा होना चाहिए. लेकिन नतीजे आए तो कांग्रेस को प्रचंड बहुमत और आप से ज्यादा वोट शिरोमणि अकाली दल को मिला. “आप” को सीटें भले ज्यादा मिलीं लेकिन वोट उसे मिले २३.७% ही मिले जबकि अकाली दल को २५.२%. ऊपर से जिस विक्रम मजीठिया को ड्रग्स के मामले में चारों ओर से घेरा गया और पंजाब के नौजवानों को नशाखोर बनाने का सीधा सीधा आरोप लगाया , वह मजीठिया जीत गए. प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर बादल भी जीत गए. यानी केजरीवाल के कैंपेन से सारे कल-पुर्जे खुलकर बिखर गए. जिस पंजाब से जीतकर केजरीवाल देश की राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी ताकत बनने के सपने देख रहे थे, उस पंजाब ने दिन में तारे दिखा दिए. सवाल ये है कि ऐसा क्यों हुआ?
इसकी चार-पांच बड़ी वजहें हैं. केजरीवाल ने आखिर तक यह साफ नहीं होने दिया कि पार्टी अगर जीतकर आती है तो मुख्यमंत्री कौन होगा? यह बात मतदान तक चर्चा में रही कि पंजाब में कहीं कोई गैर पंजाबी या बाहर से आया आदमी शासन तो नहीं करने लगेगा! पंजाब और बंगाल ये दो ऐसे राज्य हैं जिनमें स्थानीयता और जातीयता से गहरा जुड़ाव रहता है और सांस्कृतिक पहचान को बनाए-बचाए रखने की चिंता भी लोगों में उतनी ही मजबूत रहती है. पंजाब में दिल्ली की तरह सिर्फ केजरीवाल को ही प्रोजेक्ट किया गया. हिंदी बोलनेवाला हरियाणा का आदमी जो दिल्ली का मुख्यमंत्री है. दो सिख पार्टी की तरफ से मजबूत चेहरे के तौर पर उतारे गए थे. वे थे एच एस फुल्का और जरनैल सिंह . दोनों दिल्ली के थे. यानी लोगों को ये समझ नहीं आ सका कि अगर वोट दोगे तो पंजाब की पहचान और परेशानी समझनेवाला ऐसा कौन होगा जिसको सीएम बनाया जाएगा. केजरीवाल की पहली मात यहीं हुई.
चुनाव आते-आते केजरीवाल के बारे में कुछ हद तक ये राय बन चुकी थी कि यह आदमी खालिस्तान समर्थकों के साथ भी उठ बैठ सकता है. बादल और कैप्टन अमरिंदर अपनी रैलियों में लगातार ये आरोप लगाते रहे कि केजरीवाल की खालिस्तान के पूर्व आतंकियों से नजदीकियां हैं, लेकिन केजरीवाल इसको मजबूती से काट नहीं पा रहे थे. कनाडा ,आस्ट्रेलिया और यूरोप के देशों से जो एनआरआई आकर पंजाब में डेरा डाले हुए थे, उनको लेकर शक बढने लगा था. सच यही है कि आज भी खालिस्तान की मांग के साथ जो लोग देश से बाहर रह रहे हैं वे इन्हीं देशों में हैं. ऊपर से भटिंडा के मौड़ में कांग्रेस उम्मीदवार के रोड शो में धमाका हो गया. तीन लोग मारे गए, बारह घायल हो गए. इससे कुछ ही रोज पहले पहले लुधियाना में एक हिंदू नेता की हत्या कर दी गई थी.
मौड़ ब्लास्ट के ठीक पहले केजरीवाल खालिस्तान कमांडो फोर्स के पूर्व आतंकी गुरिंदर सिंह के घर रुके थे. हालांकि उस घर में किराएदार रहते हैं और केजरीवाल वैसे ही एक समर्थक किराएदार के यहां रुके थे, लेकिन उनके पास गेस्टहाउस या फिर कई दूसरी जगहों पर रहने का विकल्प था. वे नहीं रुके. इस बात को सुखबीर बादल ने अपनी रैलियों और सभाओं में जोर शोर से उठाया कि ये आदमी आंतकियों का समर्थक है और बब्बर खालसा से जुड़ी संस्था अखंड कीर्तनी जत्थे के आरपी सिंह के साथ ब्रकफास्ट भी कर चुका है. पंजाब, १५ साल तक आतंक की मार झेलने के बाद अब उसके नाम से ही दहल जाता है. राज्य में खालिस्तान अब कोई मुद्दा ही नहीं है. दहशतगर्दी की दो घटनाओं के बाद लोगों को केजरीवाल की सरकार के आने की सूरत में खालिस्तानियों के सक्रिय होने का डर सताने लगा. आम आदमी पार्टी के लिये ये बड़े नुकसान की वजह बना.
केजरीवाल की जो राजनीति है, वह स्वस्थ्य और समझदार लोकतंत्र के लिहाज से अच्छी नहीं है. पार्टी मतलब केजरीवाल, सरकार मतलब केजरीवाल, चेहरा मतलब केजरीवाल और भविष्य मतलब केजरीवाल. मजबूत सांगठनिक ढांचे और लंबे संघर्षों के अनुभव से नहीं उपजी पार्टी में एक व्यक्ति के आसपास सबकुछ खड़ा कर दिया जाना, पार्टी की संभावनाओं को गिरवी रखने जैसा है. यह पहले से होता रहा है. केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद जिसतरीके से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की टीम को निकाल फेंका गया या फिर उससे पहले जस्टिस संतोष हेगड़े, एडमिरल रामदास, मधु भादुड़ी जैसे लोगों को चलता कर दिया गया, उसने संकेत यही दिया कि केजरीवाल को रोकनेवाले हर आदमी की जगह पार्टी से बाहर ही है. पंजाब में कन्वीनर सुच्चा सिंह छोटेपुर के साथ भी ऐसा हुआ. उन्होंने पार्टी हाईकमान पर आरोप लगाया कि प्रदेश की इकाई पर संजय सिंह और दुर्गेश पाठक जैसों को थोपा जा रहा है. बाहर के लोग यहां सब तय कर रहे हैं. बजाय इसके कि ऐसे नाजुक मामले को मुलायमियत से हैंडल किया जाता, पिछले साल सितंबर में सुच्चा सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया. यह ठीक वैसे ही था जैसे केजरीवाल ने पंजाब से अपने दो सांसदों – पटियाला के धर्मवीर गांधी और फतेहगढ साहिब के हरिंदर सिंह खालसा को निकाला था. उन दोनों ने पार्टी हाईकमान पर अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाया था और “आप” ने उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधि के आरोप में दरवाजा दिखा दिया. सुच्चा सिंह का जाना उसी तरह की कार्रवाई का नतीजा था. उनके साथ कई दूसरे लोग भी गए, लेकिन आम आदमी पार्टी को इसकी परवाह इसलिए नहीं थी क्योंकि पार्टी के अंदर लोग बड़ी तादाद में आ रहे थे. आनेवालों से ज्यादा अहम जानेवाले होते हैं- यह बात समझना बहुत जरुरी है. जानेवाले आपकी तमाम कमजोरियों और नाकामियों की पूरी जानकारी के साथ जाते हैं. जब वे बाहर चीजें मजबूती से रखते हैं तो लोगों की राय बदलती है. सुच्चा सिंह भले ही चुनाव बुरी तरह हार गए लेकिन वे और उनके साथ गए लोगों ने जो सवाल उठाया और आम आदमी पार्टी के बारे में जो कुछ भी कहा उससे पार्टी के बारे में लोगों की राय, थोड़ी ही सही लेकिन बदली.
अरविंद केजरीवाल को ये समझना होगा कि दिल्ली के फॉर्मूले को देश में लागू नहीं किया जा सकता. दिल्ली डायलॉग का पंजाब डायलॉग विकल्प नहीं हो सकता. हरियाणा का केजरीवाल दिल्ली का मुख्यमंत्री तो बन सकता है लेकिन कोई भी दिल्लीवाला पंजाब का मुख्यममंत्री नहीं बन सकता. खुद को चमकाकर कुछ वक्त के लिये पार्टी या सरकार तो चलाई जा सकती है लेकिन लंबे समय के लिये विश्वसनीयता हासिल करना जरुरी होता है. अगर अन्ना हजारे से लेकर योगेंद्र यादवों और प्रशांत भूषणों की जमात हर जगह आप पैदा करते चलेंगे तो लोग आपको आसानी से समझ जाएंगे. आप ६ साल पहले एक आंदोलन के संयोग से पैदा हुए हैं. आप ना तो कोई करिश्माई नेता हैं, ना ही देश की जमीनी समझ आपको उतनी है. ऐसे में पार्टी के नेताओं का आधार जितना बढेगा, उनका कद जितना बढेगा और उनकी ईमानदार राय को आप ईमानदारी से जितना सुनेंगे समझेंगे- पार्टी और सत्ता की सेहत के लिहाज से उतना ही बेहतर होगा. कभी कभी अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में आदमी खुद उल्लू बन जाता है- सिद्दू को बीच मंझधार में डालकर “आप” ने ऐसा ही किया. लिहाजा राजनीति में कुछ संयम, कुछ समझदारी, कुछ दबाव-दबंगई और कुछ मेलजोल बहुत जरुरी होते है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में कामयाबी के लिये नायक तो चाहिए लेकिन बाकी जरुरी बातों पर भी उतना ही जोर होना चाहिए. गोवा आपके गड़बड़झाले का नतीजा है और पंजाब आपकी राजनीतिक सूझबूझ की कमी और केजरीवाल मार्का अड़ियलपन का सबूत.
(इंडिया न्यूज के मैनेजिंग एडिटर राणा यशवंत के फेसबुक वॉल से.)