अखिलेश भी अपने पिता की तरह संगठन और सरकार में एकाधिकार चाहने वाले नेता नजर आते हैं..

यूपी के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को बहुत ठीक से जानने का दावा नहीं कर सकता। उनसे मेरी एकाध बार ही मुलाकात है। लंबी राजनीतिक बातचीत भी ज्यादा नहीं हुई। सिर्फ उनके कामकाज, फैसलों और बयानों आदि के आधार पर कह सकता हूं कि वह कोई बहुत वैचारिक किस्म के राजनीतिज्ञ नहीं हैं। अपने पिता की तरह वह भी संगठन और सरकार में एकाधिकार चाहने वाले नेता नजर आते हैं। उनकी कार्यशैली में बहुत लोकतांत्रिकता नहीं है। जिसको पसंद करते हैं, ‘राजा’ की तरह उस पर दरियादिली दिखाते हैं और जो तनिक भी नापसंद आया, उसे अपने दायरे से बाहर कर देते हैं। उनके सलाहकारों में कुछेक योग्य हैं पर ज्यादातर अयोग्य और चापलूस किस्म के लोग हैं। पर अखिलेश अपने पिता की तरह धुन के पक्के नजर आते हैं। उऩके व्यक्तित्व में कांग्रेसी-किस्म की व्यावहारिकता भी है। सभी समाजों-समुदायों को साथ लेकर चलना चाहते हैं। पिता और चाचाओं से अलग वह आधुनिक शहरी मिजाज के हैं। शायद, इसीलिये यूपी में युवाओं के एक बड़े हिस्से को वह अपने पिता या चाचाओं के मुकाबले ज्यादा पसंद आ रहे हैं। लेकिन 2017 के चुनाव में अपनी स्वतंत्र पहलकदमी दर्ज कराने के लिये उनके पास बहुत कम वक्त है। फिलहाल दो ही विकल्र्प हैं उनके सामने। वह अपने पिता-परिवार, चाचाओं, चचेरे भाइय़ों से समझौता या उनके सामने सरेंडर करके चलें और 2017 में आराम से सत्ता से बाहर हो जायें या फिर नयी पहल करें। सन 1969 की इंदिरा गांधी की तरह अपनी ही पार्टी में काबिज निहित-स्वार्थों के गिरोह को चुनौती देकर बाहर आयें और सैफई-परिवार के बजाय पूरे यूपी को अपना परिवार बनायें। 2017 की बड़ी लड़ाई की स्वय़ं अगुवाई करें। क्या वह इतना बड़ा जोखिम लेंगे? अगर लेंगे तो वैचारिक रूप से बहुत प्रतिबद्ध या सुदृढ़ न होने के बावजूद वह आज की मूल्यहीन-राजनीति में एक नये सितारे के तौर पर चमक सकते हैं!

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उर्मिल के एफबी वॉल से.)

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