NDTV में लंबे समय तक काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार समरेंद्र सिंह ने चैनल को लेकर बड़ा खुलासा किया है। समरेन्द्र सिंह ने सिलसिलेवार तरीके से अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट लिखकर NDTV को बेनकाब कर दिया है। समरेन्द्र सिंह ने अपने इस पोस्ट के जरिए बताया है कि पत्रकारिता और नैतिकता को लेकर बड़े-बड़े दावे करने वाला यह चैनल कैसे छोटे-छोटे अपराधियों और बाहुबलियों के सामने घुटने टेक देता है। इसके अलावा समरेन्द्र सिंह ने NDTV को लेकर कई और चौंकाने वाला खुलासा किया है। समरेन्द्र सिंह अपने पोस्ट में लिखा है..
बात 2006-2007 की होगी. उन दिनों एनडीटीवी इंडिया की कमान दिबांग के हाथ में थी. एक शाम दिबांग ने अपने केबिन में बुलाया और कहा कि नेहाल किदवई ने पुड्डुचेरी से स्टिंग ऑपरेशन भेजा है. तुम उस पर आधे घंटे का स्पेशल बना दो. अगले दिन “खबरों की खबर” की जगह यही स्पेशल जाएगा. “खास खबरों की खबर” के तौर पर. मैंने हामी भरी और नेहाल का स्टिंग ऑपरेशन देखने के लिए एडिट बे में चला गया. वह स्टिंग ऑपरेशन भयावह था. पुड्डुचेरी के दो होटलों पर उन्होंने स्टिंग किया था. वहां “स्ट्रिपटीज” होता था. एक किस्म का कामोत्तेजक डांस जिसमें लड़कियां नाचते हुए अपने कपड़े उतारती हैं.
इसी नाम से हॉलीवुड की मशहूर फिल्म भी है. वो फिल्म 1996 में रिलीज हुई थी और उसमें डेमी मूर लीड रोल में थीं. उन दिनों मैं कॉलेज में था और मैंने यह फिल्म दोस्तों के साथ दिल्ली के प्रिया सिनेमाहॉल में देखी थी. “स्ट्रिपटीज” फिल्म के बाद से मैं डेमी मूर का दीवाना बन गया था. उस फिल्म में उन्होंने गजब का डांस किया है. इंद्र के दरबार में उनके जैसे ही अप्सराएं होती होंगी. उन्हें आप उर्वशी, रंभा, तिलोत्तमा और मेनका समझिए. जो किसी भी विश्वामित्र की तपस्या भंग कर दें. उस फिल्म में स्ट्रिपर के जीवन का स्याह पक्ष भी है. लेकिन फिल्मकारों का मूल मकसद उस पर ज्यादा जोर न देकर एक ऐसी कामुक फिल्म बनाना था, जो बाजार में कामयाब हो सके. इसलिए डेमी मूर समेत सभी अभिनेत्रियों को उत्पाद के तौर पर पेश किया गया. ताकि लोग उनकी खूबसूरती, उनके जिस्म और उनके मूव्स को देखने के लिए सिनेमाहॉल पहुंचें. मैं और मेरे दोस्त भी इसीलिए यह फिल्म देखने पहुंचे थे.
लेकिन नेहाल के स्टिंग में ऐसा कुछ भी नहीं था. उस स्टिंग ऑपरेशन को देख कर रोमांच की जगह शर्मिंदगी, डर और आक्रोश का भाव पैदा होता था. जब जीवन और समाज की क्रूर सच्चाइयां अपनी पूरी नग्नता के साथ सामने आती हैं तो घबराहट होने लगती है. उनसे आंख मिलाने का साहस किसी में नहीं होता. न व्यक्ति में. न समाज में. भागने को जी करता है. उस स्टिंग में भी समाज की एक क्रूर और भयावह सच्चाई दर्ज थी. पूरी नग्नता के साथ. उसमें औरतों की सिसकियां, उनकी शिकायतें और उनकी बेबसी दर्ज थी. उनके जिस्म और आत्मा पर मर्दों के अत्याचार दर्ज थे. यातना देने के लिए उनके शरीर को सिगरेट से कई जगह दागा गया था. मर्दों की हैवानियत के साथ उसमें मर्दों की वासना भी दर्ज थी. वो भी अपने विभत्स और विकृत रूप में. वैसे वासना विभत्स और विकृत ही होती है. इसके आगे मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है. चेतना खत्म हो जाती है. मानवता दम तोड़ देती है.
नेहाल के स्टिंग में बहुत कुछ था. इतना कुछ था कि 12-13 साल बाद भी मैं उसे पूरी तरह नहीं भूल सका हूं. सारा विजुअल देखने सुनने और नोट करने के बाद मैंने नेहाल से लंबी बात की. उन्होंने बताया कि यह स्टिंग करना जान जोखिम में डालने के बराबर था. इस धंधे के तार बहुत ताकतवर सिंडिकेट से जुड़े थे. उस सिंडिकेट की कमान एक नेता के हाथ में थी. नेहाल ने यह भी बताया कि इससे जुड़े लोग इलाके के बड़े अपराधी हैं. बेहद क्रूर हैं. हल्का सा भी शक होने पर कत्ल कर देते हैं. फिर शरीर से पत्थर बांध कर बीच समुंदर में फेंक देते हैं. नेहाल से बातचीत के बाद मैंने स्पेशल बनाना शुरू किया. उसी बीच मुझे प्रोमो की कुछ लाइनें देनी थीं. जो सुबह से चलने वाली थी. मैं थोड़ा उलझा हुआ था. उन्हीं दिनों चैनल में कुछ महीने के लिए दीप उपाध्याय आए थे. उन्होंने कुछ टिप्स दिए और प्रोमो तैयार हुआ. उस प्रोमो की आखिरी लाइन थी कि “कौन है जिस्म का ये सफेदपोश सौदागर बताएंगे आज रात 9:30 बजे खास खबरों की खबर में.”
प्रोमो देने के बाद मैंने देर रात तक स्क्रिप्ट फाइनल की और प्रोड्यूशर को थमा कर घर चला गया. अगले दिन सुबह से प्रोमो चलने लगा. प्लेकार्ड दिखाया जाने लगा. अगली शाम भी मैं ड्यूटी पर था. रात 9:22-9:25 तक सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी. शो के सभी पैकेज रनडाउन में लगा दिए गए थे. स्लग, एस्टन और पैराडब सबकुछ तैयार हो गया था. एक दमदार और मार्मिक स्पेशल सामने था. तभी दिबांग ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और कहा कि स्पेशल गिराना है. मैं चौंक गया. अचानक कई सवाल जेहन में कौंधने लगे. सबकुछ तो कैमरे पर है, फिर क्यों गिराना है. अगर इसे गिराया गया तो चैनल की साख का क्या होगा? इसकी जगह चलेगा क्या? कुछ भी तैयार नहीं है. पुराना कुछ चलाने के लिए आधे घंटे का समय चाहिए होगा. यही सब सोचते हुए मैंने दिबांग से पूछा कि क्यों सर? क्या हुआ? कुछ गलत है क्या?
दिबांग – पुड्डुचेरी के उस नेता के वकील का नोटिस आया है.
मैं – वकील का नोटिस आया है तो क्या हुआ सर? सबकुछ तो कैमरे पर है हमारे पास. एक मुकदमा लड़ लिया जाएगा.
दिबांग – रॉएज (Roys यानी डॉ प्रणॉय रॉय और राधिका रॉय) नहीं मान रहे.
मैं – नोटिस कैसे भेजा है?
दिबांग- फैक्स से.
मैं – फैक्स मिल जाए जरूरी तो नहीं. कई बार प्रिंट भी साफ नहीं होता है. आप उनसे कहिए कि हम ये कह सकते हैं कि फैक्स पर नजर देर से पड़ी तब तक एक बार तो स्पेशल चल जाएगा. इज्जत बच जाएगी.
दिबांग – अच्छा रुको, एक बार और बात करके देखता हूं.
विकल्प खोजने के लिए मैं कमरे से बाहर निकला. दिमाग जितना तेज चल रहा था, समय उससे कहीं अधिक तेजी से गुजर रहा था. कुछ ही पलों में 9:30 बज गए और “खास खबरों की खबर” का बंपर हिट हो गया. उसके बाद स्पेशल का मोंटाज चलने लगा.
मैं दिबांग के केबिन की ओर मुड़ा. मैंने कहा कि सर स्पेशल शो ऑनएयर हो गया है. अब कुछ नहीं हो सकता.
दिबांग – केवीएल (NDTV के CEO KVL Narayan Rao) से बात हुई है. वो कह रहे हैं कि हम कोई लफड़ा नहीं चाहते. इसे गिरा दो. वो कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं.
मैं – अब क्या किया जाए? जब तक कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं हो, इसे रोका नहीं जा सकता.
दिबांग – उस आदमी (सफेदपोश सौदागर) का जिक्र कहां हैं?
मैं – आखिरी सेगमेंट है.
दिबांग- उसे हटा सकते हैं?
मैं – लेकिन यह तो भद्दा मजाक होगा? आप केवीएल को क्यों नहीं कहते हैं कि एक मुकदमा लड़ लिया जाएगा. इतना बड़ा संस्थान चल रहा है… रिपोर्टर ने जान पर खेल कर स्टिंग किया है तो क्या हम अपनी स्टोरी डिफेंड नहीं कर सकते?
दिबांग ने मेरे सामने फिर बात की. लेकिन वो सुनने को तैयार नहीं थे. फोन कटा तो मैंने झुंझलाहट में दिबांग से कहा कि जब मान नहीं रहे हैं तो गिरा देते हैं.
दिबांग – तो फिर क्या चलाओगे?
मैं – मैनेज हो जाएगा.
और मैं कमरे से बाहर निकल गया….
दिबांग के चैंबर से बाहर आने के बाद मैं थोड़ी देर तक अपनी कुर्सी पर बैठा रहा. बदहवास सा था. सोचता रहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? कोई चैनल अपने रिपोर्टर के साथ, अपनी टीम के साथ और पत्रकारिता के सिद्धांतों के साथ ऐसा अपराध कैसे कर सकता है? किसी भी न्यूज संस्थान को एक व्यक्ति नहीं बल्कि टीम चलाती है. रिपोर्टर उस टीम का सबसे जरूरी और अनिवार्य हिस्सा होता है. ईमानदार, समझदार और निडर रिपोर्टर ही मजबूत मीडिया संस्थान का निर्माण करते हैं. सबसे पहले वो स्टोरी आइडिया भेजते हैं. फिर संस्थान से हरी झंडी मिलने के बाद उस स्टोरी पर काम करते हैं. नेहाल ने भी यही किया होगा. इस स्टिंग ऑपरेशन से पहले संस्थान से इजाजत ली होगी. एनडीटीवी से हरी झंडी मिलने के बाद उन्होंने अपनी जान दांव पर लगा कर इस असाइनमेंट को पूरा किया होगा. जिस स्टोरी के लिए उन्होंने जान की बाजी लगा दी, क्या हम सब अपने सुरक्षित जोन में बैठ कर उस स्टोरी की रक्षा भी नहीं कर सकते? लानत है हमारे पत्रकार होने पर!
इस बदहवासी के बीच भी मैं यही सोच रहा था कि मैनेज कैसे करूं? फिर मैंने सोचा कि आखिरी सेगमेंट को गिरा कर उसकी जगह एक दो खबर लगा देता हूं और एंकर लिंक लाइव करा देता हूं. लेकिन लगा कि यह सही नहीं होगा. हमने आज सिर्फ अपने रिपोर्टर, अपनी खबर और अपने आप के साथ ही भद्दा और अश्लील मजाक नहीं किया था. हमने लाखों दर्शकों के साथ भी भद्दा और अश्लील मजाक किया था. इसलिए उस जगह पर कुछ वैसी ही चीज चलनी चाहिए जो “मजाक” हो. मैंने वही किया भी. मैंने आखिरी सेगमेंट गिरा कर उसकी जगह पर लगभग उतने ही मिनट का “गुस्ताखी माफ” लगा दिया. जिस्म के सफेदपोश सौदागर की पहचान पर पर्दा डाल दिया. लेकिन अपनी इस हरकत के बाद मेरी नजर में मेरा यह संस्थान, इसके कर्ताधर्ता और खुद मैं बहुत गिर गया था. उसके बाद मेरा मन एक पल के लिए भी दफ्तर में बैठने का नहीं हुआ. दिबांग से इजाजत ली और फिर बाहर निकल गया.
एनडीटीवी में अपने कार्यकाल के दौरान इससे पहले भी मैंने बहुतेरी खबरें रोकी और गिराई थीं. कुछ अपने विवेक के आधार पर और कुछ अपने संपादकों के कहने पर. ज्यादातर का जिक्र मायने नहीं रखता. लेकिन कुछ का रखता है. ऐसी ही एक और घटना दिबांग के ही कार्यकाल में हुई थी. पंकज पचौरी के कहने पर मैंने न चाहते हुए भी दिल्ली के एक नामी अस्पताल में लापरवाही से जुड़ी खबर गिराई थी. गजब की घटना थी वो. एनडीटीवी इंडिया पर रात 7:00 बजे मेट्रो (दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता और बेंगलुरु) की खबरें चलती थीं. उस दिन दिल्ली के एक नामी अस्पताल में डॉक्टरों की लापरवाही से जुड़ी एक एक्सक्लूसिव खबर हमारे पास थी. तय हुआ कि सात बजे का बुलेटिन इसी से खुलेगा.
वह बुलेटिन मेरे जिम्मे था. मैंने वह खबर फाइनल करने के बाद रिपोर्टर का लाइव लेने का फैसला लिया. सारी तैयारी हो चुकी थी. बुलेटिन हिट होने से 10-15 मिनट पहले पंकज पचौरी वहां पहुंचे.
पंकज – सात बजे का बुलेटिन किसके पास है?
मैं – सर, मैं बना रहा हूं.
पंकज – डॉक्टरों की लापरवाही वाली खबर गिरा दो.
मैं – पहली हेडलाइन है. टॉप स्टोरी भी है. हेडलाइन भी गिरानी पड़ेगी.
पंकज – सब गिरा दो. रनडाउन बदल लो.
मैं – ऐसा नहीं होगा.
पंकज – (जोर देते हुए, थोड़ी ऊंची आवाज में) मैं कह रहा हूं कि गिरा दो.
मैं – आप सीनियर हैं. आपके कहने से कोई स्टोरी चल तो सकती है, लेकिन गिर नहीं सकती. कुछ चलाना हो तो बताइए. गिराने को मत कहिए.
पंकज गुस्से में लाल हो गए. उन्होंने कहा कि तुम्हारी यह हिम्मत! और इतना कहने के बाद वो तमतमाए हुए दिबांग के चैंबर में घुस गए. दिबांग से उन्होंने कहा कि “कैसे कैसे लोग भर्ती कर लिए गए हैं.” दिबांग का चैंबर मेरी कुर्सी के ठीक बगल में था और पंकज की आवाज और भी ऊंची हो गई थी. इसलिए मैं बातचीत सुन पा रहा था. दिबांग ने कहा कि “क्या हुआ? आराम से बैठो और बताओ.” पंकज ने कहा कि अस्पताल के खिलाफ जो खबर है उसे मैंने गिराने को कहा तो समरेंद्र कहता है कि मेरे कहने से स्टोरी नहीं गिरेगी.” दिबांग ने कहा कि ठीक ही तो कह रहा है. खबर गिरानी है तो मुझसे बोलो. डेस्क का एक प्रोटोकॉल होता है. डेस्क के लोग उसका पालन करते हैं.”
फिर दिबांग ने मुझे बुलाया और कहा “समरेंद्र वो खबर गिरा दो.”
मैं – हेडलाइन है फिर वो भी गिरेगी.
दिबांग – गिरा दो.
मैं – ठीक है सर.
खबर के साथ मेट्रो हेडलाइन भी मैंने गिरा दी. नेशनल हेडलाइन लगा दी. दूसरी खबर से बुलेटिन ओपन कर दिया.
थोड़ी देर बाद पंकज वहां से चले गए. मामला शांत हो गया. लेकिन पंकज के मन में मेरे खिलाफ गांठ तो पड़ ही गई थी. यह गांठ जाह्नवी प्रकरण के बाद और बड़ी हो गई. उस पर मैं पहले ही विस्तार से लिख चुका हूं. इसका असर यह हुआ कि जुलाई 2007 में दिबांग के हटने के बाद पंकज मुझे निपटाने का मौका तलाशते रहते थे. उसी क्रम में एक दिन उन्होंने एक ओछी हरकत की. उसके बारे में जब भी सोचता हूं हंसी आती है. यह घटना 2007 के आखिर या फिर 2008 के शुरुआती दिनों की होगी. उन दिनों चैनल की कमान संजय अहिरवाल और मनीष कुमार के हाथ में थी.
पंकज पचौरी का एक साप्ताहिक कार्यक्रम था. “हम लोग”. शनिवार या फिर रविवार की यह घटना है. चूंकि लंबा समय बीत चुका है इसलिए दिन ध्यान नहीं आ रहा. उस दिन मैं सुबह की शिफ्ट में था. सुबह 9:30 पर रिकॉर्डेड कार्यक्रम चलता था. इसलिए नौ बजे का बुलेटिन खत्म होने के बाद मैं नाश्ता करने कैंटीन चला गया. 20 मिनट बाद फ्लोर पर लौटा तो टीम के दोनों साथी घबराए हुए थे. मैंने पूछा “क्या हुआ?” साथियों ने बताया कि “पंकज जी आए थे और बहुत गुस्से में थे. उनके शो “हम लोग” का टिकर (स्क्रीन के नीचे चलने वाली पट्टी जिसमें तमाम तरह की सूचनाएं रहती हैं) पिछले हफ्ते वाला ही चल रहा था. उन्होंने कहा है कि वो दो-ढाई घंटे से देख रहे हैं कि टिकर गलत जा रहा है. पंकज सर ने हम सबकी नौकरी खा जाने की धमकी दी है. काफी बुरा-भला कहा है. वो आपके बारे में भी पूछ रहे थे और आपको अपने चैंबर में बुलाया है.”
मैंने उनसे पूछा कि आप सबने टिकर ठीक कर दिया है न?” उन्होंने कहा कि “हां”. फिर मैंने कहा कि “दस बजे का रनडाउन तैयार है.” वो बोले “हां”. मैंने कहा कि “ठीक है एक बार उसे देख लेते हैं.” मैं अपनी कुर्सी पर बैठ गया और दस बजे का बुलेटिन चेक करने लगा. साथियों ने फिर से कहा कि पंकज जी ने आपको तुरंत अपने चैंबर में आने को कहा है. मैंने कहा कि “बुलेटिन पर ध्यान दिया जाए. पंकज जी थोड़ी देर में यहीं आ जाएंगे. फिर सबके सामने ही बात हो जाएगी.”
पंकज अपने केबिन से देख रहे थे कि मैं आ गया हूं और उनके पास आने की जगह अपनी कुर्सी पर बैठ कर काम कर रहा हूं. उन्हें यह बात नागवार गुजरी. उनसे रहा नहीं गया. थोड़ी देर बाद वो तमतमाए हुए अपने चैंबर से बाहर निकले और मेरे पास आ गए.
पंकज – कहां थे आप?
मैं- कंपनी नाश्ता मंगाती है, वही करने गया था. (एनडीटीवी में सुबह की टीम के लिए कंपनी की तरफ से नाश्ता और रात की टीम के लिए डिनर का बंदोबस्त रहता था)
पंकज- आप अपना काम ठीक से नहीं करते हो?
मैं – क्या हुआ?
पंकज – इन्होंने (टीम के दूसरे साथियों की ओर इशारा करते हुए) बताया नहीं क्या, कि क्या हुआ?
मैं – कुछ-कुछ बताया है. पूरा आप बता दीजिए.
पंकज – “हम लोग” का टिकर पुराना क्यों चल रहा था?
मैं – कब देखा आपने?
पंकज – सुबह सात बजे से देख रहा हूं गलत चल रहा है. मजाक बना रखा है आप लोगों ने!
मैं – तो सात बज कर एक मिनट पर आपका फोन क्यों नहीं आया?
पंकज – मतलब?
मैं – आप इस चैनल के एक संपादक हो. आपके प्रोग्राम का टिकर गलत चल रहा था. आपने सुबह सात बजे उसे गलत चलते हुए देखा तो आपने सात बज कर एक मिनट पर यहां, डेस्क पर फोन क्यों नहीं किया? हमारी तो जानकारी में नहीं था. वैसे भी इस शो का प्रोड्यूसर कोई और है. यह उसकी जिम्मेदारी है. फिर भी आपने ढाई घंटे तक अपने ही प्रोग्राम का टिकर गलत चलने दिया! सिर्फ इसलिए कि दफ्तर पहुंच कर हम सबकी क्लास लेंगे. यह तो चैनल के साथ धोखा है! आप चैनल के साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं?
पंकज सकपका गए. उन्हें इस बात का अंदाजा ही नहीं था कि खेल करने वाले के साथ ही खेल हो जाएगा. उन्होंने कहा कि “आप अपना काम कीजिए, ज्ञान मत दीजिए.: मैंने कहा कि “यहां हर कोई काम कर रहा है. तभी चैनल चल रहा है. ऑटो मॉड पर नहीं चल रहा. आप अपने को ठीक कीजिए.” इसके बाद पंकज बड़बड़ाते हुए वहां से चले गए.
लिखते-लिखते मैं कहीं और चला आया. इसे आप क्षेपक समझिए. इस क्षेपक के बाद हम लौटते हैं अपने केंद्रीय प्रश्नों पर. खबरों और रिपोर्टरों के साथ होने वाले विश्वासघात पर. उस सवाल पर कि नेहाल का स्टिंग ऑपरेशन हो या फिर दिल्ली के नामी अस्पताल की लापरवाही से जुड़ी खबर हो… आखिर एनडीटीवी ऐसी खबरों को डिफेंड क्यों नहीं करता है? अपने रिपोर्टर के साथ खड़े होने की जगह, उस खबर में मौजूद किसी अपराधी या फिर किसी ताकतवर व्यक्ति के बचाव में क्यों खड़ा हो जाता है? अपनी ही खबर पर पर्दा क्यों डालने लगता है? क्या इसके पीछे कोई बड़ी वजह है?
इसे समझने के लिए आपको दो और घटनाओं पर गौर करना होगा. एक घटना तो बेहद खौफनाक है. चैनल पर चली एक खबर के बाद बिहार के एक बाहुबली नेता ने रिपोर्टर और कैमरामैन का अपहरण कर लिया. और विडंबना देखिए कि एनडीटीवी अपने रिपोर्टर और कैमरामैन के पक्ष में खड़ा होने का साहस तक नहीं जुटा सका. उस रिपोर्टर और कैमरामैन की लड़ाई दूसरे चैनलों ने लड़ी. लेकिन इसके विपरीत इस कायर और भोकुस दलाल किस्म के संस्थान ने यूपीए सरकार के एक मंत्री को निपटा दिया. कांग्रेस के एक कद्दावर नेता का वजूद खत्म कर दिया. इतना ही नहीं बीते पांच साल से केंद्र की ताकतवर मोदी सरकार के खिलाफ मुहिम चला रहा है.
यह कैसे मुमकिन है कि जो चैनल छोटे-छोटे अपराधियों और बाहुबलियों के खिलाफ घुटने टेक देता है, जो अपने रिपोर्टरों का बचाव नहीं कर पाता है, वही चैनल बड़े नेताओं को निपटा देता है और सत्ता के शीर्ष को चुनौती देता हुआ नजर आता है? आखिर इतना विरोधाभास कैसे हो सकता है? यह कैसा चरित्र है? यह कैसा तिलिस्म है? यह कैसा खेल है? … (जारी)
(ऊपर जिन दोनों घटनाओं का जिक्र है उन पर विस्तार से चर्चा अगले पोस्ट में होगी. साथ ही एनडीटीवी के विरोधाभास पर भी खुलकर बात होगी. इससे आप एनडीटीवी का चरित्र बेहतर तरीके से समझ सकेंगे. पॉवर का खेल और बेहतर तरीके से समझ सकेंगे. यह भी कि जब किसी मीडिया संस्थान को एक वृहद सियासी खेल के “औजार/हथियार” के तौर पर विकसित किया जाता है तो वह अपने बचाव में जनता का इस्तेमाल कैसे और क्यों करता है? यह अकारण नहीं है कि डॉ प्रणॉय रॉय और रवीश कुमार कभी अपने पक्ष में 13-14 साल की मासूम बच्ची सुनयना को तो कभी 50 हजार बेरोजगारों को खड़ा करते हैं. किसी व्यक्ति या फिर समूह को पक्ष या विपक्ष में खड़ा करना सियासतदानों का काम है. पत्रकार का नहीं. पत्रकार जब यह कलाबाजी दिखाने लगता है तो उसकी कुछ मजबूरियां ऐसी होती हैं जो पत्रकारिता से कहीं इतर संबंध रखती हैं. वो संबंध कौन से हैं और क्यों हैं.. इन सब बातों पर भी चर्चा होगी.)