अच्छा हुआ ऋषिवर आप इस युग में पैदा नहीं हुए वरना एक डाकू को हमारी मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी महर्षि बनने नहीं देते। रत्नाकर कभी भी संन्यास नहीं ले पाता। रामायण की जगह वो ‘अधूरा ख्वाब’ लिखा होता। हम उसकी समीक्षा छापते और उसकी लेखन शैली की तारीफ करते नहीं अघाते। सच्चिदानंद तो अव्वल दर्जे का मूरख है। दिल्ली-एनसीआर में बियर शॉप और रियल स्टेट का कारोबार। एक आम आदमी के लिए ये बहुत बड़ा सपना। और तुम सबकुछ छोड़ छाड़कर सन्यासी बन गए। संन्यास लेना सबके बस की बात नहीं। वह भी तब जब वो संपन्न हो।जब आदमी अपने इन सपनों को पूरा करने के सुबह से शाम तक झूठ और फरेब करता है। कुछ जी तोड़ मेहनत करते हैं तब भी तुम जितना बना लिए थे वहाँ तक नहीं पहुंच पाते। तुमने ये सब हासिल कर भगवा चोला पहना। मोह माया से दूर हो गए। महामंडलेश्वर बन गए। लेकिन तुम्हारा अतीत तुम्हारे पीछे पड़ गया। यही मात खा गए महराज। उस समय पत्रकार के रूप में नारद जी थे।आज हम लोग हैं।ऐसा आग लगाये की गांजा पीने वाले संत भी आपके खिलाफ सुलगने लगे।भूल गए संन्यास और सन्यासी की परिभाषा। दौड़ पड़े कौए के पीछे बिना अपना कान चेक किये। सच्चिदानंद को फिर हमने बिल्डर बाबा बना दिया। महामंडलेश्वर की पदवी छिनवा ली। हमारा बस चले तो हम रत्नाकर उर्फ़ महर्षि वाल्मीकि से महर्षि का पद छीन लें। हम इस लोकतान्त्रिक देश में सर्वशक्तिशाली हैं। सनी लियोन पर पैनल डिस्कशन कराते हैं पर इतना नहीं जानते कि सारे सद्कर्म कुकर्म करने के बाद आई विरक्ति से ही संन्यास का रास्ता निकलता है।
(पत्रकार दृगराज मद्धेशिया के फेसबुक वॉल से.)