केजरीवाल को पहली बार किसी सभा में आमने-सामने सुना। आशुतोष की किताब का लोकार्पण था। राजदीप ने वे सारे मुद्दे कुरेदे जो जरूरी थे। जो सब भुला बैठे उन्हें अंत में भूपेंद्र चौबे और शेखर गुप्ता ने पूछ लिया। लेकिन केजरीवाल सबसे दाएं-बाएं ही हुए। सिर्फ साले-कमीने की भाषा के इस्तेमाल पर इतना कहा कि उन्हें ऐसा नहीं बोलना चाहिए था। पर इसमें कोई अफसोस का भाव जाहिर न था।
मुझे सबसे ज्यादा निराशा पार्टी की विचारधारा वाले सवाल के जवाब पर हुई। भ्रष्टाचार या आम आदमी का हितैषी कहने भर से विचारधारा नहीं बनती। हिटलर या इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में भ्रष्टाचार पर काबू और अनुशासन परम था। मगर जुबानों पर ताले टंगे थे। बोलने वालों की आजादी नीलाम थी।
कम से कम से कम आज जैसे मौकों पर तो केजरीवाल को अपने पारदर्शिता के सिद्धांत और प्रतिबद्धता को मुखर रखना चाहिए। आतंरिक लोकतंत्र, संवाद आदि के गरम सवालों पर वे चतुर, अतिरिक्त सजग, चौकन्ने और व्यावहारिक नेता की तरह पेश आए – दो टूक और ईमानदार नेता की तरह नहीं।
और ईमानदार का मतलब हमेशा गैर-बेईमान होना नहीं होता। पारदर्शिता ईमानदारी की पहली शर्त होती है।
जनसत्ता अखबार के संपादक ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.