वीके सिंह कहते हैं देश का दस फीसद मीडिया ‘बाजारू’ है। लगता है वे लिहाज करने लगे वरना, मेरा खयाल है, यह प्रतिशत कहीं ज्यादा ही होगा। मीडिया के एक हिस्से को बाजारू या बिकाऊ कहने पर आपत्ति नहीं हो सकती, असल बात पत्रकारिता के पेशे को वेश्यावृत्ति से जोड़ना है। यह वेश्याओं का अपमान है; वे अपना पेशा डंके की चोट पर करती हैं, किसी आड़ में नहीं।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी (सितम्बर 2005 में चंडीगढ़ प्रेस क्लब में बोलते हुए) मीडिया को गैर-जिम्मेदार बताया था और शेयर बाजार की उठापटक के मामले में बहुत बुरा-भला कहा था। पेशे के चरित्र पर सीधे प्रधानमंत्री के हमले से मीडिया बेचैन हुआ। तब मैं एडिटर्स गिल्ड का महासचिव था और मामन मैथ्यू अध्यक्ष। हमने प्रसिद्ध संपादक (स्व.) अजित भट्टाचार्जी की अध्यक्षता में एक समिति प्रधानमंत्री के आरोपों की जांच के लिए गठित की। समिति ने मनमोहन सिंह की आलोचना को सही पाया और पत्रकारों को आचार संहिता में काम करने की हिदायत दी।
सो मीडिया कौन दूध का धुला है, पर वीके सिंह को बात को कहने का सलीका और तमीज डॉ मनमोहन सिंह से सीखनी चाहिए। जनरल निजी खुन्नस में छींटाकशी करेंगे और अपने प्रतीक चुनने में प्रकारांतर किसी स्त्री-समुदाय का अपमान करने लगेंगे तो भद्द उन्हीं की न उड़ेगी!
( जनसत्ता अखबार के संपादक ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.)