इसीलिए तो रवीश भीड़ से अलग हैं..

मैंने रवीश कुमार के साथ दो लंबी बैठकें कीं और उनसे कोई ‘क्रांतिकारी’ चर्चा करने की बजाय इस व्यक्ति को करीब से देखने और समझने का प्रयास किया. ग्यारहवें माले के जिस फ़्लैट में वे रहते हैं, वह असाधारण सिर्फ इस मामले में है कि चारों तरफ पुस्तकें ही पुस्तकें दिखती हैं. अलमारी में भी और टेबल पर भी. टीवी पर सूट-टाई में दिखने वाले रवीश घर में सिर्फ टी-शर्ट और लोअर में ही मिले. चाहे सुबह हो या शाम. और इतना सहज अंदाज़ कि उनके घर में हर एक का स्वागत है, चाहे कोई बिल्डिंग में काम करने वाला मजदूर, उनके घर आकर एक गिलास पानी की डिमांड करे या कोई लंबी कार से आया आदमी उनके साथ सेल्फी खिंचवाने को आतुर दिखे. हर एक को वे अपने ड्राइंग रूम में पड़े सोफे पर प्यार से बिठाते हैं, भले वह वह अपने गंदे जूतों से बिछी कालीन को धूल-धूसरित करता रहे. चूंकि उनकी पत्नी बंगाली हैं और बंगाली घरों में प्रवेश करने के पूर्व जूते देहरी पर ही उतारने का चलन है, इसलिए मैं जूते उतार कर ही घुसा. यह एक बंग गृहणी की संस्कृति का सम्मान है.
जब भी मैं गया रवीश अपनी छोटी बिटिया से खेलते मिले. और उसकी तर्कबुद्धि से परास्त होते भी दिखे. उनकी सारी गम्भीरता और वाक-पटुता इस पांच या छह साल की बच्ची के आगे गायब हो जाती है. पर बच्ची है बड़ी खिलंदड़ी और कुशाग्र. उनके ड्राइंग रूम का बड़ा-सा एलईडी टीवी दिखावटी है. रवीश का कहना है कि वे कभी टीवी नहीं खोलते. बस पढ़ते हैं या अपनी बिटिया की शंकाओं का समाधान करते हैं. इसी ड्राइंग रूम में एक म्यूजिक सिस्टम है, जिसमें से मद्धम आवाज़ में सुर-लहरियां निकला करती हैं. वे बैठे बात कर रहे थे कि अचानक इंटरकाम पर बेल बजी. रवीश ने खुद जाकर फोन उठाया. नीचे आया बंदा रवीश को अपनी भतीजी की शादी में बुलाना चाहता था, और इसी वास्ते वह उन्हें न्योता देने आया था. रवीश ने उसे ऊपर बुला लिया. उसने कार्ड दिया और कहा भाई को बता देता हूँ, लेकिन फोन मिला नहीं तो रवीश के साथ सेल्फी लेकर उसे व्हाट्सएप पर भाई को भेज दी. रवीश से मिलकर वह अभिभूत था. रवीश ने उसको बचन दिया कि आएँगे. उसके जाने के बाद मैंने पूछा कि कौन था, तो रवीश ने बताया कि एसी की सफाई करता है. रवीश की यही सहजता मन को छूती है. इतना ख्यातनाम पत्रकार कि हारवर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र जिसे सुनने के लिए बुलाते हैं, वह व्यक्ति एसी साफ़ करने वाले की भतीजी की शादी में जाने को तैयार है.
‘एक डरा हुआ पत्रकार एक डरा हुआ नागरिक पैदा करता है’, का स्लोगन देने वाले रवीश उन सारे डरे हुए लोगों के साथ हैं, जो अपना डर बाहर निकालना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि लोग उन्हें अपना डर बताएं, वे उन्हें प्लेटफ़ॉर्म देंगे. मालूम हो कि उनका अपना ब्लॉग ही इतना लोकप्रिय है कि वह देश में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लॉग है. और उनका प्राइम टाइम सबसे ज्यादा देखा जाने वाला शो. इसीलिए तो रवीश भीड़ से अलग हैं.
मैं चलते वक़्त रवीश से एक किताब ले आया. लेकिन इस वायदे के साथ कि वापस जरूर करूंगा.
(वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला के एफबी वॉल से साभार)

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