यूनान के महान दार्शनिक अरस्तु का एक सिद्दांत है जिसे हिंदी में विरेचन कहा जाता है. यानी भावों का शुद्दिकरण और अरस्तु कहते हैं कि किसी भी त्रासदी का उद्देश्य विरेचन ही होता है. कहने का मतलब ये कि आपके अंदर कोई बीमारी है तो उसको दूर करने के उपाय कष्टकर होते ज़रुर हैं लेकिन उनका उद्देश्य आपको रोगमुक्त करना होता है. लोकतंत्र में इसे विरोधी विचारों की टकरहाटों से पैदा होनेवाली उथल-पुथल और फिर उसके बेहतर नतीजे की उम्मीद के रुप में देखा जा सकता है. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का संघ मुख्यालय, नागपुर जाना और वहां संघ प्रमुख मोहन भागवत के साथ अपनी बात रखना एक तरह का विरेचन ही है.
कांग्रेस को कई सबक
कांग्रेस के लिए अफसोस की बात ये है कि प्रणब मुखर्जी के जाने को लेकर पार्टी के अंदर जो हड़कंप मचा, कई दिग्गज नेताओं ने जैसी आपत्ति जताई और आखिर तक कांग्रेस जिस तरह सहमी रही, उसके तीन मतलब निकलते हैं.
१- पहला ये कि इससे देश की सबसे पुरानी पार्टी के वैचारिक दिवालिएपन का सबूत मिलता है. अगर उन्होंने संघ का न्योता स्वीकार कर लिया और अतिथि बनने जा रहे हैं तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट गया? बल्कि अच्छा होता कि कांग्रेस इसका समर्थन करती और प्रणब दा के बोलने का इंतजार करती.
२- दूसरा ये कि विरोध से एक संदेश यह भी गया कि आप प्रणब मुखर्जी जैसे विद्दान,विवेकशील और भारतीयता में पगे हुए नेता की साठ साल की उपलब्धि पर आप संदेह कर रहे हैं.
२- और तीसरी बात ये कि इस विरोध से यह भी अर्थ निकला कि आप लोकतंत्र में विरोध और असहमतियों के मूल तत्व को कमतर कर रहे हैं.
खैर, कांग्रेस के तमाम नेताओं को ये बात आज समझ में आ गई होगी और उन्हे अपने किए पर पछतावा जरुर हुआ होगा. पार्टी ने प्रणब दा के भाषण के बाद जो कुछ कहा वह झेंप मिटाने के सिवा और कुछ नहीं. कुल मिलाकर प्रणब दा ने कांग्रेस के नेताओं को ये संदेश तो दे ही दिया कि बिना आगा पीछा सोचे ऐसे किसी अहम मामले पर हाय-हाय नहीं किया कीजिए.
संघ प्रमुख मोहन भागवत के नए संदेश
वैसे अब बात प्रणब मुखर्जी की ही करना चाहता हूं, क्योंकि कुछ चीजें ऐसी जरुर रहीं जिन्होंने कांग्रेस को असहज किया होगा, लेकिन उसको भी विरेचन की दृष्टि से देखा जाना चाहिए. उसपर बात होगी लेकिन पहले मोहन भागवत. संघ स्वंय में दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है. यह अपने ढांचे, अनुशासन,देश-सेवा,राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की नियत परिभाषा के लिये जाना जाता है. उससे लगाव या दूरी भी इसी वजह से लोग रखते रहे हैं. लेकिन संघ प्रमुख के भाषण में कई बातें ऐसी मिलीं जो संघ के मूल सिद्दांतो में बदलाव या फिर प्रणब मुखर्जी के कारण उनमें संशोधन का प्रमाण देती हैं.
१- संघ हमेशा हिंदू समाज, हिंदू संस्कृति, हिंदू गौरव और हिंदू राष्ट्र की बात करता है. लेकिन मोहन भागवत ने कहा कि संघ सिर्फ हिंदू समाज को संगठित करने और उसके वर्चस्व को स्थापित करने का नहीं बल्कि पूरे समाज को संगठित करने का संगठन है. वे बार-बार बहुलता/विविधता में भारतयी संस्कृति की सुंदरता पर जोर देते रहे. उनके कहने का आशय ये था कि विभिन्न मतो,विचारों,धर्मों,पंथों,पक्षों,विपक्षों के साथ चलते हुए संघर्ष-हिंसा-असमानता को खत्म कर और शांति-सहयोग-खुशहाली की तरफ बढने में ही देश की भलाई है. संघ का ये नया चेहरा है.
२- संघ की पाठशाला से निकले नेता बार-बार ये कहते हैं कि हिंदुस्तान में जो पैदा हुआ वह हिंदू है. लेकिन मोहन भागवत ने कहा कि भारत में पैदा होनेवाला हर नागरिक भारतपुत्र है. उनकी इस बात को उन तमाम नेताओं ने जरुर सुना होगा. संघ का ये नया संदेश है, यदि नेताओं की बात को संघ की ही बात मान लें तो.
3-जो कांग्रेस संघ को बार-बार कट्टरपंथ और गांधी की हत्या की आड़ मेें घेरती है उसी कांग्रेस के सबसे अनुभवी नेता के सामने मोहन भागवत ने कहा कि संघ के संस्थापक डाक्टर हेडगेवार भी कभी कांग्रेस के ही सदस्य थे और दो बार जेल भी गए. बाद में उन्हें लगा कि समाज को संगठित करने और उसकी सेवा करने का काम एक बड़ी जिम्मेदारी है तो उन्होंने संघ की स्थापना की.
मोहन भागवत राष्ट्र और राष्ट्रवाद की एक नई तस्वीर और तकरीर के साथ थे. अगर आप डा हेडगेवार, गरु गोलवलकर या फिर देवरस को ठीक से पढें तो मोहन भागवत संघ के एक नए संस्करण के साथ दिखे. इसका कारण अगर आप प्रणब मुखर्जी के मुख्य अतिथि होने को मानते हों तो उनके जाने को एक ऐतिहासिक घटना के रुप में देखा जा सकता है.
प्रणब का राष्ट्र्वाद का पाठ
अपनी बात की शुरुआत में प्रणब दा ने कहा कि मैं आप सबों के साथ राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर अपनी समझ को भारत के संदर्भ में साझा करने आया हूं. इस एक लाइन ने बहुत कुछ साफ कर दिया था. भारत का संदर्भ बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है इस वाक्य का. इतना सधा कसा और संदेश के मामले में साफ भाषण बहुत कम सुना है मैने. सिलसिलेवार रखूं तो समझने के लिहाज से बेहतर होगा.
१- भारत एक महान देश है. यहां मौर्यकाल से ब्रिटिश काल तक कई आक्रमणकारी आए, शासन किए. लेकिन यह देश नहीं बदला बल्कि उनको अपने अंदर शामिल कर लिया. हजारों वर्षों में जो विविधता यहां पनपी वह व्यापक है. आज यहां १२२ से ज्यादा भाषाएं, १६०० से अधिक बोलियां और सात बड़े धर्मों को माननेवाले लोग हैं. इस विशालता के साथ एक व्यवस्था, एक ध्वज, एक संविधान और एक पहचान है – भारतीय. यही राष्ट्र है.
२- राष्टवाद किसी एक जाति, धर्म, संप्रदाय या क्षेत्र बंधा नहीं है. ऱाष्ट्रवाद का मतलब वसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवन्तु सुखिन: है. राष्टवाद का मतलब संविधान के प्रति भक्ति है ( कांस्टीट्यू्शनल पैट्रीयोटिज्म) है. इसको समझाने के क्रम में प्रणब मुखर्जी ने सुरेद्रनाथ बैनर्जी से लेकर बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी और पं नेहरु जैसे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं का जिक्र किया. उन्होंने कायदे से ये समझाने की कोशिश की कि यूरोप में जो राष्टवाद है वह एक भाषा, एक धर्म और एक शत्रु के सिद्दांत पर आधारित है. भारत में ऐसा नहीं हो सकता. इसीलिए उन्होंने अपनी बात की पहली लाइन में इन द कॉन्टेक्स्ट् ऑफ इंडिया कहा.
३- कट्टरता और असहिष्णुता से राष्ट्रवाद धूमिल होगा औऱ वह हमारे अस्तित्व को कमजोर करेगा.
भारत में राष्ट्रवाद पर इससे अच्छा ना कुछ हो सकता है औऱ ना कहा जा सकता है. दादा ने कांग्रेस के पुरखों की बातों को रखकर कांग्रेस का नंबर ही बढा गए. कहीं ना कहीं वो ये संदेश दे रहे थे कि कांग्रेस राष्ट्रवाद को जिसतरह से समझती रही है, वही भारत का असली राष्ट्रवाद है.
मोदी को संदेश
प्रणब मुखर्जी ने अपने तीस मिनट के भाषण के आखिर में आते आते वो कहा जिसके लिए कांग्रेसी दम साधे उन्हें सुन रहे होंगे और इससे वो कहीं ना कहीं मोदी सरकार पर सवाल खड़ा कर रहे थे और शासन करने की सलाह दे रहे थे.
१- उन्होंने चाणक्य के अर्थशास्त्र के उस श्लोक को रखा जो संसद के गेट नंबर ६ से जाते समय लिफ्ट के बाहर लिखा है. इसका आशय है कि प्रजा का कल्याण ही राजा का धर्म है. सत्ता शासन के लिये नहीं मिलती बल्कि जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिये होती है.
२- हमने विकास के लिेए अच्छे काम किए होंगे लेकिन खुशहाली में गिरते गए हैं. इस बाबत दादा ने भारत के गिरते हैप्पिनेस इंडेक्स का जिक्र किया.
ये बातें मोदी सरकार की तरफ इशारा थीं और कांग्रेस के लिये बहुत बड़ा सुकून भी.
कांग्रेस की तकलीफ
प्रणब मुखर्जी का जाना किसी पहले कांग्रेसी का संघ मुख्यालय जाना नहीं है. महात्मा गांधी, इंदिरा, जेपी,जाकिर हुसैन जैसे कद्दावर नेताओं ने संघ के कार्यक्रम में हिस्सा लिया है.पं नेहरु ने गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध जरुर लगा दिया था,लेकिन १९६२ में चीन से साथ युद्द के दौरान संघ के स्वंयसेवकों के काम से वे इतने प्रभावित हुए कि १९६३ की गणतंत्र दिवस परेड में तीन हजारों स्वंयसेवकों को परेड में हिस्सा लेने दिया. इसीतरह १९६५ में पाकिस्तान के साथ युद्द के समय जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने सभी दलों की बैठक बुलाई तो उसमें तब के संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर को भी बुलाया था. इसलिए प्रणब मुखर्जी का संघ मुख्यालय जाना कांग्रेस के लिये कहीं से भी असहज होने का कारण नहीं दे रहा था. वैसे भी जब कोई राष्ट्रपति हो जाता है फिर उसके बाद वह दल, संगठन और पक्ष से परे हो जाता है. कांग्रेस दादा की यात्रा को इसतरह भी देख सकती थी. डाक्टर कलाम भी २०१४ में नागपुर गए थे औऱ डाक्टर हेडगेवार को श्रद्दांजलि दी थी.
वैसे कांग्रेस के लिये सबसे बड़ी दिक्क्त ये होगी कि प्रणब मुखर्जी ने संघ के संस्थापक हेडगेवार के बारे में विजिटर डायरी में लिखा कि वे भारत माता के एक महान सपूत के प्रति अपना सम्मान जताने औऱ श्रद्दांजलि देने आए हैं. प्रणब दा विचारों और फैसलों में किसी की खैरात लेकर चलनेवाले नेता कभी नहीं रहे, लेकिन हेडगेवार को उनका फूल माला चढाना और सम्मान में इतना कुछ लिखना कांग्रेस को खल रहा होगा. इसका कारण सिर्फ यही है कि आज की राजनीति में कांग्रेस के लिए संघ को घेरकर मोदी को घेरना दोहरे फायदे का सौदा है. दादा के जाने ने उसकी इस मंशा पर बहुत हद तक पानी जरुर फेर दिया है. कुल मिलाकर दादा ने राष्ट्रवाद पर संघ, सरकार को लेकर मोदी और विरोधी को भी सम्मान के लिहाज से कांग्रेस का विरेचन ही किया है. भावों का शुद्दिकरण- त्रासदी का उद्देश्य.
(इंडिया न्यूज़ के मैनेजिंग एडिटर राणा यशवंत की फेसबुक वाल से साभार)