हम जिस देश में रहते हैं वहां जिंदगी की सच्चाइयां कितनी कड़वी हैं..

संतोषी मतलब पांच साल की एक बच्ची और कोयली देवी मतलब उसकी मां. अब ये रिपोर्ट पढ़िए और सोचिए हम जिस देश में रहते हैं वहां जिंदगी की सच्चाइयां कितनी कड़वी हैं. एक तरफ छोटी-छोटी दावतों में भी खाना फेंका जाता है और दूसरी तरफ दूर-दराज के इलाकों में दाने-दाने को मोहताज बच्चे दम तोड़ देते हैं. झारखंड के सिमडेगा जैसे इलाके देश में विकास के नाम पर तमाचा हैं. खैर, पढिए और सिहरिए!!

संतोषी के पिताजी बीमार रहते हैं. कोई काम नहीं करते. ऐसे में घर चलाने की जिम्मेवारी उसकी मां कोयली देवी और बड़ी बहन पर थी. वे कभी दातून बेचतीं, तो कभी किसी के घर में काम कर लेतीं. लेकिन, पिछड़े समुदाय से होने के कारण उन्हें आसानी से काम भी नहीं मिल पाता था. ऐसे में घर के लोगों ने कई रातें भूखे गुजार दीं.

कोयली देवी ने बताया, “28 सितंबर की दोपहर संतोषी ने पेट दर्द होने की शिकायत की. गांव के वैद्य ने कहा कि इसको भूख लगी है. खाना खिला दो, ठीक हो जाएगी. मेरे घर में चावल का एक दाना नहीं था. इधर संतोषी भी भात-भात कहकर रोने लगी थी. उसका हाथ-पैर अकड़ने लगा. शाम हुई तो मैंने घर में रखी चायपत्ती और नमक मिलाकर चाय बनायी. संतोषी को पिलाने की कोशिश की. लेकिन, वह भूख से छटपटा रही थी. देखते ही देखते उसने दम तोड़ दिया. तब रात के दस बज रहे थे.”
संतोषी ने चार दिन से कुछ भी नहीं खाया था. घर में मिट्टी चूल्हा था और जंगल से चुन कर लाई गई कुछ लकड़ियां भी. सिर्फ ‘राशन’ नहीं था.गांव के डीलर ने पिछले आठ महीने से उन्हें राशन देना बंद कर दिया था. क्योंकि, उनका राशन कार्ड आधार से लिंक्ड नहीं था.

(इंडिया न्यूज़ के मैनेजिंग एडिटर राणा यशवंत की फेसबुक वाल से साभार)

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