रवीश ने सीरीज चलाकर वो किया जो एक पत्रकार को सचमुच करना चाहिए..

ट्रेनों की लेटलतीफी पर रवीश ने सीरीज चलाकर वो किया जो एक पत्रकार को सचमुच करना चाहिए. कम से कम एक ट्रेन तो लाइन पर आ ही गई. लेकिन कहते हैं ना कि गोजर की एक टांग टूट भी जाए तो उसको फर्क नहीं पड़ता. सही नाम क्या है, नहीं पता लेकिन सौ पैरोंवाला एक रेंगनेवाला कीड़ा होता है जिसे हम बचपन में गोजर कहते थे,यह कहावत उसी के लिये कही जाती रही है. एक ट्रेन ठीक हो भी जाए तो बाकी इतनी थकेली हैं कि आदमी अब उम्मीद छोड़ चुका है. वो बस पकड़कर गोरखपुर, बस्ती, बनारस और दरभंगा तक जा रहा है, लेकिन ट्रेन का मुंह नहीं ताक रहा. मेहनत-मजूरी करनेवाला एक आदमी रोज 150 रुपया भी कमा रहा होगा तो जितने लोगों को लेकर, ट्रेनें लेट चल रही हैं, उन लोगों का हर्जाना जोड़ लीजिए तो करोड़ों में बैठ जाएगा. मगर आम आदमी कौड़ी के मोल है इस देश में. चुनाव में जनता जनार्दन है, फिर जनता का जनार्दन के हाथों मर्दन है. ये कौन सी जवाबदेही है, कैसी व्यवस्था है? दिल्ली-एनसीआर में लोग टूअर-टापर की तरह झोरा-बोरा, बीवी-बाल-बच्चा लेकर सराय काले खां,आईएसबीटी,नोएडा के महामाया फ्लाइओवर जैसी तमाम जगहों पर बस पकड़ने के लिये फेने-फेन हुए पड़े हैं. ये लोग बस छूटने पर अपनी किस्मत को कोस रहे हैं. एक बार भी दिमाग में नहीं आता कि उनकी ऐसी हालत क्यों है? ट्रेनें लेट हैं और उनका घर जाना जरुरी है. घर-परिवार में शादी ब्याह है,कटनी-दौनी का सीजन है. जाना ही है. टाइम पर नहीं गए तो घर-परिवार जीवन भर कोसेगा.रिश्ते निभाने के लिये इतनी तकलीफ यही लोग उठाते हैं. नाता-रिश्तेदार, न्योता-हंकारी, दाब-उलार( जीवन में ऊपर नीचे ) यही लोग समझते-सहते हैं. लेकिन बेचारे एक बार भी ये नहीं समझ पाते कि उनकी इस परेशानी के लिए जिम्मेदार कौन है? रेल मंत्री को शायद कोई फर्क नहीं पड़ रहा होगा. हां रेलवे को जरुर पड़ रहा है. उत्तर और पूर्वोत्तर रेलवे लखनऊ मंडल का एक आंकड़ा कहता है कि 1 करोड़ 32 लाख यात्री कम हुए हैं. उत्तर रेलवे के स्टेशनों से 64 लाख और पूर्वोत्तर से 68 लाख. अभी मैंने लेट चल रही ट्रेनों की लिस्ट देखी तो लगा कि जो आदमी इससे चल रहा है उसके हिम्मत और धीरज की भी बलिहारी है. अभी तक इन लाखों लोगों ने रेलवे मंत्रालय की चूलें नहीं हिलाई, बधाई के हकदार हैं..
(इंडिया न्यूज़ के मैनेजिंग एडिटर राणा यशवंत की फेसबुक वाल से साभार)

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