पत्रकार लोकतंत्र का डाकिया है, उसे मारकर तुम खुद मरोगे..

कश्मीर में हमने स्वाभिमान के साथ पत्रकारिता की है और हम जमीनी हकीकत को प्रमुखता से छापना जारी रखेंगे.
अपनी हत्या से एक दिन पहले 13 जून को कश्मीर के प्रमुख अंग्रेजी अखबार राइजिंग कश्मीर के प्रधान संपादक शुजात बुखारी ने यह बात ट्वीट की. वे भारत के एक प्रमुख थिंक टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के उस बयान का जवाब दे रहे थे, जिसमें उन पर पत्रकार से ज्यादा अर्द्ध इस्लामिक होने का आरोप लगाया गया था. जाहिर है बुखारी को इस बात का कतई अंदाजा नहीं रहा होगा कि अभी उन पर इस्लामपरस्त होने का इलजाम लग रहा है और कुछ घंटे बाद उन्हें भारत परस्त होने के लिए गोलियों से छलनी कर दिया जाएगा.
बुखारी वरिष्ठ पत्रकार थे, महबूबा मुफ्ती की सरकार में एक कैबिनेट मंत्री के भाई थे और 2006 में आतंकवादियों के हाथ से मारे जाने से इसलिए बच गए थे, क्योंकि तब उन्हें अगवा करने वाले आतंकवादियों की बंदूक खराब हो गई थी. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. उनका सिर और पेट गोलियों से छलनी कर दिया गया. उनकी मौत पर भारत सरकार और प्रमुख पार्टियों, कश्मीर के सभी प्रमुख नेताओं, पाकिस्तान के लोगों और कश्मीर के अलगाववादी संगठनों ने शोक व्यक्त किया है और हत्या की निंदा की है. हत्या की जिम्मेदारी भी अब तक किसी संगठन ने नहीं ली है. जब हर पक्ष इस हत्या की निंदा कर रहा है तो फिर उनकी हत्या किसने की.
इसकी गुत्थी शायद यहां छुपी है कि भारत में बहुत से लोग उन्हें कम भारतीय और कश्मीर में बहुत से लोग उन्हें कम कश्मीरी मानते थे. यह बात उनके उस आखिरी कलाम में भी दिखती है जिसमें वे कह रहे हैं कि वे कश्मीर का सच बताना जारी रखेंगे.
उनकी हत्या ईद के त्योहार से एक दिन पहले और कश्मीर में भारत की तरफ से घोषित किए गए एकतरफा युद्धविराम के दौरान हुई है. उनकी हत्या एक ऐसे दिन हुई, जिस दिन भारतीय सेना के एक सिपाही का अपहरण कर आतंकवादियों ने उसकी हत्या कर दी. एक ऐसे दिन हुई जब संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार जम्मू-कश्मीर और गुलाम कश्मीर के मानवाधिकारों को लेकर रिपोर्ट जारी की. यह सब कुछ एक साथ हुआ, जो बताता है कि कश्मीर सबके लिए कठिन होता जा रहा है.
क्योंकि 2016 में बुरहान बानी के एनकाउंटर के बाद से कश्मीर में हिंसा की एक नई लहर पैदा हुई है. इस लहर में पैलेट गन्स भी चलीं और सुरक्षाबलों पर पत्थर भी बरसाए गए. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि इन सब बातों को दर्ज करने वाले निहत्थे पत्रकार का कत्ल कर दिया गया हो.
पत्रकार का कत्ल करने वालों का मकसद क्या हो सकता है. यही न कि अब कोई सुरक्षित नहीं है. एक ऐसे पत्रकार की हत्या जो पाकिस्तान से बैक चैनल बातचीत में शामिल रहा हो, यह संदेश भी देती है कि आतंकवादी संवाद के सारे रास्ते बंद कर देना चाहते हैं. पत्रकार की हत्या करना सबसे आसान है, क्योंकि पत्रकार न तो आज और न भविष्य में सुरक्षा के घेरे में पत्रकारिता करेगा. यह उस अलिखित नैतिक भरोसे की हत्या है, जिसमें पत्रकार विषमतम परिस्थितियों में यह सोचकर जाता है कि दोनों पक्ष या सारे पक्ष उसे निष्पक्ष मानेंगे और खुद को उससे किसी तरह का खतरा महसूस नहीं करेंगे. इस भरोसे के एवज में वह सभी पक्षों को सुनेगा और उनकी बात बाकी दुनिया के सामने लाएगा. लेकिन जब आप इस भरोसे की हत्या कर देंगे, तो बाकी दुनिया को सच कौन बताएगा. यह काम आतंकवादियों की बंदूकें तो नहीं कर सकतीं. न उनकी बंदूकें कश्मीरियों की समस्याओं और जरूरतों को दुनिया के सामने ला सकती हैं. एक पत्रकार की हत्या कर आतंकवादियों ने बाकी पत्रकार बिरादरी को दहशत में डालने की कोशिश की है कि उनकी जुबान खामोश हो जाए. लेकिन पत्रकार की क्या कोई अपनी जुबान होती है. पत्रकारिता तो आखिर को बेआवाज की आवाज है. अगर आतंकवादियों की यह दहशत पत्रकारों के मन में बैठ गई, तो इससे सिर्फ और सिर्फ कश्मीरियों की आवाज बंद हो जाएगी, जिनकी लड़ाई लड़ने का दावा आतंकवादी करते हैं.
बुखारी ने मौत से कुछ दिन पहले एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा था कि कश्मीर में चल रहा सुरक्षा बलों का मौजूदा अभियान युवाओं को भारत विरोध से भारत से नफरत की तरफ ले जा रहा है. लेकिन इस बयान के बावजूद भारत सरकार या कश्मीर सरकार ने कोई ऐतराज नहीं किया. यह बताता है कि भारत अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करता है. संयुक्त राष्ट्र की 14 जून की रिपोर्ट में भले ही भारत की बहुत आलोचना की गई हो, लेकिन उस रिपोर्ट में भी कहा गया कि जम्मू कश्मीर में मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी की हालात पाकिस्तान के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर से बहुत अच्छी है. लेकिन अब लगता है कि आतंकवादी संगठन जम्मू कश्मीर को भी उसी तरह नर्क बना देना चाहते हैं, जिस तरह का नर्क उन्होंने गुलाम कश्मीर में बना रखा है.
लेकिन उनके मंसूबे कामयाब नहीं होंगे. बुखारी की हत्या से विचार या आवाज की हत्या नहीं की जा सकती. बुखारी के जनाजे में जिस तरह लोग आए हैं, उससे अंदाजा लगता है कि कश्मीरी अवाम हत्यारों के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दिखा रहा है. यह हत्या सुरक्षा बलों के लिए जितनी बड़ी चुनौती है, उससे कहीं बड़ी चुनौती कश्मीर की जनता के लिए है. कश्मीरियों ने बहुत कुछ खोया है और उनकी जिंदगी में बहुत से तनाव हैं. उनमें से बहुतों की आकांक्षाएं कुछ अलग किस्म की हैं. कुछ को आजाद होने की तमन्ना है. लेकिन इनमें से कोई भी तमन्ना लोकतंत्र के डाकिये की हत्या करने पूरी नहीं होगी. अगर कश्मीरियों को अपने आंदोलन को लोकतांत्रिक और अहिंसक रखकर सभ्य समाज की सहानुभूति हासिल करनी है, तो उन्हें ऐसी हत्याएं रोकने के लिए जो बन पड़े, वह करना चाहिए.

(दैनिक भास्कर के पूर्व राजनीतिक संपादक पीयूष बबेले के फेसबुक वॉल से साभार)

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