यूपी फतह के लिए माया ने बनाया खास प्लान

 

 

नये कलेवर की बसपा जीत सकती है यूपी का गढ़

विवादित मुद्दों से गुरेज, मीडिया से नजदीकियां और विरोधियों पर तीखा प्रहार है नयी रणनीति

चुनावी घमासान में साफ सुथरे जिताऊ चेहरों पर माया का दांव

 

Dr shailendra

पीलीभीत के मशहूर सर्जन डॉ शैलेन्द्र गंगवार को बसपा सुप्रीमो ने बरखेड़ा विधानसभा से उतारा है। समाजसेवा से जुड़ा, युवा, पढ़ा-लिखा शैलेन्द्र सरीखा चेहरा दरअसल नयी बदली बसपा का सिर्फ इकलौता उदाहरण नहीं है। सियासी मैदान को फतह करने को बेताब मायावती ने दरअसल हर उन दागों को धो डालने की कोशिश की है, जिनकी वजहों से विरोधी उन पर निशाना साधते रहे हैं। महीनों पहले एक लम्बी जद्दोजहद के बाद आधी सीटों पर प्रत्याशी तय कर दिये गये हैं, और तकरीबन हर जगह इस बात का खास ख्याल रखा गया है कि चुनावी चेहरा, जीत सकने की आर्थिक और सामाजिक ताकत तो रखता ही हो, साथ ही उसका कोई आपराधिक इतिहास भी न हो। नये संभावित मुख्यमंत्रित्व काल में मूर्तियों और पार्कों को खास तवज्जो न देने की बात मायावती पहले ही कह चुकी हैं। चुनावी शतरंज पर ठोक बजाकर चाल चल रही बसपा सुप्रीमो की फिलहाल हर कोशिश पार्टी का चेहरा निखार ही रही है। कई चुनावी सर्वेक्षणों ने बसपा के बेहतर नतीजों की घोषणा पहले ही कर दी थी। माना जा रहा था कि इन सर्वेक्षणों के चलते दूसरे सियासी दल चौकन्ना हो जायेंगें और चुनाव आते-आते जो नये सर्वेक्षण होंगे उनमें नतीजे बदल भी सकते हैं मगर, एक तरफ मथुरा काण्ड में सपा सरकार के कद्दावर नेताओं की कथित संलिप्तता ने सपा सरकार की छवि पर आघात किया तो दूसरी तरफ कैराना के पलायन मामले को लेकर भाजपा सांप्रदायिक रोटियां सेंकती साफ नजर आयी। इलाहाबाद के भाजपाई जुटान में भी ऐसा कुछ खास नहीं दिखा जिससे लगे कि भाजपा के पास सियासी रण में उतरने के लिए कुछ अलग है, ऊपर से मुख्यमंत्री घोषित करने को लेकर मचे रण में भाजपा के लिए हालात बिहार सरीखे होते दिख रहे हैं। रही कांग्रेस, तो उसे फिलहाल यह भी नहीं पता कि उसकी सेना का असल सेनापति कौन है। ऐसे में दलित पार्टी मानी जाती रही बसपा अपने नये संस्करण में सभी वर्गों की पसंद बनकर उभर रही है।

बसपा सुप्रीमों मायावती ने मिशन 2017 के आगाज के साथ ही सियासी एजेंडा भी तय कर लिया है। इसी के तहत दलितों को जोड़े रखने और मुसलमानों को मोदी-मुलायम गठजोड़ से बच के रहने को कहा जा रहा है। आमतौर पर प्रेस से गुरेज करने वाली मायावती तकरीबन हर मुद्दे पर सीधा मोर्चा संभाल रही हैं। प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था, किसानों की दुर्दशा, बुंदेलखंड की बदहाली को अखिलेश सरकार के विरूद्ध हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। एकला चलो की राह पर बीएसपी केन्द्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी को नंबर वन का दुश्मन मानकर चल रही है तो प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को नंबर दो पर रखा गया है। नंबर तीन पर कांग्रेस सहित अन्य वह छोटे-छोटे दल हैं जिनका किसी विशेष क्षेत्र में दबदबा है। बसपा हर ऐसे मुद्दे को हवा दे रही है, जिससे केन्द्र और प्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा सके।

बसपा में छोटे-बड़े सभी नेता मिशन 2017 को पूरा करने के लिये जिस तरह से तेजी दिखा रहे हैं उससे भाजपा-सपा में भी बेचैनी साफ दिख रही है। 2012 के विधान सभा चुनाव में पराजय और 2014 के लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल पाने वाली बहुजन समाज पार्टी की नेत्री मायावती अगर 2017 के विधान सभा चुनाव जीत कर सत्ता में वापसी का सपना देख रही हैं तो इसे राजनैतिक पंडित बसपा का आत्मविश्वास ही बता रहे हैं।  विधान सभा चुनाव से एक वर्ष पूर्व बसपा को नंबर वन पर देखा जा रहा है तो इसका कारण केन्द्र की मोदी सरकार और यूपी की अखिलेश सरकार की नीतियां हैं। अयोध्या में भगवान राम का मंदिर निर्माण करने संबंधी बीजेपी नेताओं के बयानों, हैदराबाद में दलित छात्र की आत्महत्या, बीते साल हरियाणा में दो दलितों की जलकर हुई मौत, अखलाक की हत्या आदि तमाम ऐसी घटनाएं हैं जिसके सहारे मोदी सरकार को न केवल दलित बल्कि मुसलमान विरोधी भी साबित किया जा रहा है।

मायावती जहां दलित वोट बैंक को लेकर चिंतित हैं तो वहीं उन्होंने मुस्लिमों के बीच अपने समर्थन की जमीन तलाशने की कवायद भी शुरू कर दी है। इस क्रम में माया नेे सबसे पहले बसपा के मुस्लिम नेताओं को टिकट देने में दरियादिली दिखाई। इस बार करीब 25 फीसदी टिकट मुस्लिमों को देने का मन बनाकर पार्टी अपने लिये बेहद खास अल्पसंख्यक वोटों पर निगाहें टिकाए हुए है। बसपा दलितों और मुसलमान वोट बैंक के अलावा ऊंची जाति के एक वर्ग के वोटों पर भी नजर रखे हुए है। इसके लिए यह इस समुदाय के गरीब लोगों के लिए बसपा सुप्रीमों नौकरी में आरक्षण की जोरदार वकालत कर रही हैं। यहां याद रखना जरूरी है कि 2007 के चुनावों में दलित-मुस्लिम और ब्राहमण वोटों की गोलबंदी करके बसपा ने 403 में से 206 सीटें जीतने में सफलता हासिल की थी। पार्टी को मिलने वाले कुल वोटों में 30.43 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं का था। जानकर कहते हैं कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार का कामकाज ठीकठाक होता तो मायावती के पक्ष में संभावनाएं इतनी प्रबल न होतीं। पर लोकसभा चुनाव में दूसरी तमाम पार्टियों को बौना बना देने वाली भाजपा दिल्ली-बिहार के बाद उत्तर प्रदेश में भी अपना वर्चस्व कायम रखने में विफल होती दिख रही है। लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत का ताना-बाना बुनने वाले पार्टी के मुखिया अमित शाह भले ही दोबारा अध्यक्ष बन गये हों लेकिन उनका रुतबा काफी घटा है।

मिशन 2017 फतह करने के लिये बसपा केन्द्र की भांति ही अखिलेश सरकार के खिलाफ भी जाति, धर्म और समुदाय से इतर कानून-व्यवस्‍था की बिगड़ी स्थिति को प्रमुख मुद्दा बना रही है। बसपा का प्रमुख वोट बैंक रहा जाटव, दलित समूह और अन्य पिछड़ी जातियां, जिनका मायावती से मोहभंग हो गया था, यादवों के वर्चस्व से त्रस्त होकर एक बार फिर उनके पक्ष में एकजुट हो रहे हैं। ब्राह्मणों की स्थिति भले उतनी खराब न हो, लेकिन ग्रामीण इलाकों में बंदूक की नोक पर गुंडाराज करने वालों से वे भी आजिज आ चुके हैं। इसी प्रकार राज्य में बढ़ते कृषि संकट और खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों को उनकी समस्याओं से निजात दिलाने में माया की भूमिका को उम्मीद भरी नजरों से देखा जा रहा है। प्रदेश की सपा और केंद्र की भाजपा सरकार से त्रस्त किसान बसपा के शासन को याद करते हैं, जब न केवल चीनी मिलों से समय पर गन्ने का भुगतान हो जाता था, बल्कि कीमत भी वाजिब मिलती थी। सपा सरकार द्वारा पिछले तीन वर्षो से गन्ना मूल्य नहीं बढ़ाया जाना भी गन्ना किसानों को खटक रहा है।

कानून व्यवस्था के अलावा अखिलेश सरकार में प्रमोशन में दलित कोटा खत्म करना,  दलितों की जमीन की बिक्री के लिये बनाये गये नियमों में बदलाव ऐसे मुद्दे हैं जिससे दलितों को लगता है कि माया राज में ही उसके हित सुरक्षित रह सकते हैं। यही सोच माया की सत्ता में वापसी की राह आसान कर रही है। वैसे तो समाजवादी सरकार में कानून-व्यवस्था की स्थिति सबके लिये दुखद है, किंतु दलितों के प्रति अधिपत्यशाही समूहों का अन्याय बढ़ा है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दलित कल्याण के मुद्दे पर या तो उदासीन है या ऐसी नीतियां लागू कर रहे है, जिन्हें दलित हितों के खिलाफ माना जाता है। बीते वर्ष समाजवादी पार्टी सरकार ने अदालत के आदेश की आड़ में नौकरी में प्रमोशन में अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (एससी – एसटी) कर्मचारियों के लिए नौकरी में निर्धारित किए गए कोटा को समाप्त करने के साथ-साथ ही एक ऑफिस आर्डर के तहत नौकरी में प्रोन्नत किए गए एससी-एसटी कर्मचारियों को पदावनत(डिमोशन) करने का निर्णय लिया था।  इस आदेश से लाखों एससी-एसटी कर्मचारी प्रभावित होते दिखे। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग ने इस ऑफिस आर्डर को ध्यान में रख पूर्व में प्रोन्नत किए गए एससी/एसटी कर्मचारियों को पदावनत करने का आदेश दे दिया। दलित समाज में समाजवादी पार्टी सरकार के इस पहल का काफी विरोध हो रहा है। इसको लेकर दलितों में वर्तमान सरकार के प्रति गुस्सा और नाराजगी बढ़ रही है।

दलितों का प्रोन्नति कोटा खत्म किये जाने के अलावा अखिलेश सरकार का एक और निर्णय दलितों के हितचिंतकों को रास नहीं आ रहा है। राज्य सरकार का यह निर्णय भी बसपा को 2017 के लिये संजीवनी दे रहा है। खुद दलितों में भी एक बड़ी संख्या इस निर्णय से खफा है। समाजवादी सरकार ने बीते वर्ष ही दलितों की भूमि खरीद और विक्रय संबंधी कानून में भी एक बड़ा परिवर्तन किया था। गौरतलब हो, 1950 का भूमि कानून गैर दलितों द्वारा दलितों की भूमि के खरीद की इजाजत तो देता था, किंतु 1.26 हेक्टेयर से ज्यादा होने वाली भूमि ही खरीदी-बेची जा सकती थी। दलितों की भूमि 1.26 हेक्टेयर से कम होने पर किसी दलित को ही बेची जा सकती थी लेकिन इसके लिए जिला प्रशासन द्वारा कड़ी छानबीन की जाती थी। अखिलेश सरकार ने दलितों के भूमि विक्रय संबंधी इस नियम को खोखला करके फरमान जारी कर दिया कि अगर किसी दलित के पास न्यूनतम 1.26 हेक्टेयर भूमि भी है तो वह भी खरीदी-बेची जा सकती है और कोई गैर-दलित भी उसे खरीद सकता है।

इस नियम परिवर्तन का असर यह हुआ कि भूमि माफियाओं का उत्साह बढ़ गया तो दूसरी ओर दलितों को अपनी जमीन कैसे सुरक्षित रहेगी इसकी चिंता सताने लगी है। अखिलेश सरकार के इस निर्णय पर इसलिये भी सवाल खड़े किये जा रहे हैं, क्योंकि अक्सर खबरें आती रहती हैं कि सपा में भू-माफियाओं का दबदबा है। यह और बात है कि कुछ दलित अपनी जमीन किसी को भी बेचने की छूट में लाभ भी देख रहे हैं, पर इनका प्रतिशत काफी कम है और यह दलितों का प्रतिनिधित्व भी नहीं करते हैं। दलितों का बड़ा तबका इस निर्णय से काफी नाराज हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती इन निर्णयों की आलोचना कर चुकी है। मायावती कहती हैं कि दलितों व अन्य पिछड़े वर्गों के मामले में प्रदेश की सपा सरकार की सोच लगभग बीजेपी व आरएसएस की तरह नजर आती है। दलित वर्ग के कर्मचारी व अधिकारी पदोन्नति में आरक्षण को बरकरार रखने के लिए केंद्र व प्रदेश की सपा सरकार के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करते रहते हैं। सपा सरकार ने दलित कर्मचारियों व अधिकारियों को काफी ज्यादा नुकसान पहुंचा दिया है।

बहरहाल, बसपा सुप्रीमों मायावती और उनके समर्थक 2017 में अपना भविष्य जरूर तलाश रहे हैं, तो 2012 में मिली करारी हार से सबक लेते हुए पिछले कार्यकाल की गलतियों से बचने का भी पूरा प्रयास किया जा रहा है। मायावती के तानाशाही रवैये और ब्राहमणों के प्रति बढ़ते रूझान से नाराज होकर ही दलितों के एक बड़े धड़े ने 2014 में हाथी की जगह कमल खिला दिया था। ब्राहमण नेताओं के वर्चस्व के कारण बीएसपी की पिछली सरकार में दलितों के अलावा पिछड़ा वर्ग भी अपने आप को उपेक्षा का शिकार समझ रहा था। माया की कैबिनेट से लेकर शासन तक में गैर दलितों का दबदबा देखने को मिला था। रामवीर उपाध्याय, बाबू सिंह कुशवाह, स्वामी प्रसाद मौर्या, अंनत कुमार मिश्रा उर्फ अंटू, बादशाह सिंह, नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नेताओं का माया कैबिनेट में रूतबा था तो अफसर शाही की कमान शंशाक शेखर ने संभाल रखी थी जिसके सामने किसी की एक नहीं चलती थी। मायावती कभी किसी शादी समारोह में नहीं जाती है, परंतु सतीश मिश्र के वहां जब वह पहुंची तो यह बात उन दलित नेताओं को भी रास नहीं आई जो माया के काफी करीबी हुआ करते थे।  2012 में समाजवादी पार्टी माया के तानाशाही रवैये और पिछड़ों की उपेक्षा के मुद्दे को भुना कर जीत हासिल करने में सफल रही तो 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी दलितों को अपने पाले में खींच ले गये।

बात 2017 की करें तो माया ने भले ही अपना एजेंडा तय कर दिया हो लेकिन उन्हें इस बात का भी अहसास है कि बीजेपी और समाजवादी नेता प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देकर कानून-व्यवस्‍था और कृषि संकट जैसे मुद्दों को हाशिये पर धकेल सकते हैं। विश्व हिन्दू परिषद का राम मंदिर राग अलाप और सपा में आजम खान जैसे नेताओं की उकसाने वाली बयानबाजी सांप्रदायिक माहौल बिगड़ने की आशंका को हवा देने का काम कर रही है। इसी बात को ध्यान में रखकर बसपा नेता भाजपा को दंगा वाली पार्टी का तमगा देने में जुट गये हैं। बसपा सुप्रीमों मायावती तय एजेंडे पर ही आगे बढ़ रही हैं, इसी लिये वह न तो इस बात से चिंतित होती हैं कि फेसबुक पर उनके साथ फोटो खिंचाने वाली बसपा उम्मीदवार का टिकट काटने पर विरोधियों के बीच क्या प्रतिक्रिया होती है और न ही इस बात को लेकर फिक्रमंद हैं कि कौन उनका साथ छोड़ रहा है। बसपा नेत्री किसी भी तरह 2017 में अपनी बादशाहत कायम रखना चाहती है।

                                                         (कनकलता, न्यूज़ एडीटर “ख़बर अब तक”)        

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