एक संजीदा डॉक्टर की अगुवाई में युवाओं ने थामी पीलीभीत की नब्ज़, ‘बीमारी से आजादी’ अभियान से मिली वंचितों को राहत

पीलीभीत(एस.के.भारद्वाज)। कभी-कभी बंद कमरों में यूं ही चलती सियासी बहसें हालात तब्दीली का सबब बन जाती हैं। कुछ डॉक्टरों और दूसरे करीबी साथियों की ऐसी ही बंद कमरे की एक बहस पीलीभीत के लिए उम्मीद की रोशनी बनती दिखती है। मेनका गांधी, हेमराज वर्मा सरीखे कई कद्ददावर नेताओं के जरिये केन्द्र और सूबे में सियासी ताकत रखने वाले पीलीभीत की अनदेखी से उभरे आक्रोश ने कुछ ऐसे लोगों को राजनीतिक मैदान में ढकेल दिया है जिनका दूर दूर तक कोई वास्ता सियासत से नहीं रहा। शहर के एक मशहूर जनरल सर्जन डॉ शैलेन्द्र सिंह गंगवार को आगे कर हालात बदलने का बीड़ा उठाये हजारों युवक इन दिनों बरखेड़ा में हर दरवाजे जा रहे हैं, और मजा यह कि इन अनजानों को हाथों हाथ लिया भी जा रहा है। जोश ऐसा कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए कोई सत्ता की ताकत पाने का इंतजार भी नहीं कर रहा। ‘बीमारी से आजादी’ की पहल तो बिना किसी सरकारी मदद के ही शुरू कर दी गई।

अपने हाथों में हो ताकत
शुरूवात इस सोच के साथ हुई थी कि अगर इलाके के मौजूदा चेहरे में तब्दीली चाहते हैं, तो ताकत अपने हाथों में लेनी होगी। बरखेड़ा आरम्भ का केन्द्र बना, सत्ता की दमदार दावेदार सियासी पार्टी बसपा से टिकट हासिल हुआ और समझने-समझाने का सिलसिला शुरू हो गया। लेकिन इस दौरान यह भी साफ-साफ दिखा कि शहरी इळाकों से कई गुना ज्यादा हालात गंवई इलाकों के खराब हैं। भ्रष्टाचार हक मार रहा है, स्कूल भी नाम के हैं, सड़कें या तो हैं नहीं और अगर हैं तो यह चुगली करती हैं कि उन्हें भ्रष्टाचार के ईंट-गारे से बनाया गया है।

जमीनी तस्वीर ने किया बेचैन
लेकिन जोशीले नौजवानों को सबसे ज्यादा मायूसी यह देखकर हुई, कि शहर से कटे लोग मामूली बीमारी को ही नासूर बना ले रहे हैं। पड़ताल हुई तो पता चला कि प्राथमिक, सामुदायिक और दूसरे बड़े सरकारी अस्पताल तो खुद ही बीमार हैं। कागजों में तो वो भरे-पूरे नज़र आते हैं मगर हकीकत में वहां न तो डाक्टर्स हैं और न ही दवायें और न ही दूसरे इंतजाम।

‘बीमारी से आजादी’ की बनी रूपरेखा
नई रोशनी खोज रहे इन नौजवानों में कई चिकित्सक थे, तो जाहिर है कम से कम इस मुश्किल का हल तो थोड़ा बहुत खोजा जा सकता था। नये सिरे से मंथन हुआ, दूसरे हमपेशा साथियों से लम्बी बात हुई, कई सक्षम कारोबारियों के दरवाजों पर भी दस्तक दी गई और नतीजा यह कि ‘बीमारी से आजादी’ की रूपरेखा बन गई। स्वतंत्रता दिवस से महज एक रोज पहले 14 अगस्त को ‘खजुरिया पचपेडा’ से इस सिलसिले की बाकायदा शुरूवात कर दी गई। और इस तरह डाक्टरों का पहला दस्ता शहर से गांव उठ आया।

उम्मीद से भी ज्यादा थे जरूरतमंद
इस तरह के पहल की जरूरत है यह तो महसूस हो रहा था। पर जरूरत दरअसल सोच से भी कही ज्यादा थी। चन्द घंटों में जब हजारों लोग आस-पास के इलाकों से वहां पहुंच गये, और व्यवस्थायें जरा चरमराने लगीं तो लगा कि इस कोशिश को और ज्यादा व्यापक रूप देना होगा। और फैसला हुआ कि पीलीभीत को भी इस अभियान से जुड़ने को कहा जाये। और मददगार नये साथियों की भी तलाश की जाये।

‘सोशल-साइट्स’ का लिया आसरा
पीलीभीत को जोड़ने के लिए फेसबुक सरीखी सोशल साइट्स हथियार बनीं। लोगों से इस अभियान में मददगार बनने का आवाहन हुआ, और इस अभियान को बाकायदा शेयर कर दूसरे हमख्याल साथियों तक पहुंचा दिया गया। देखते देखते सैकड़ों ऐसे नाम आ गये जो तन-मन-धन से इस अभियान में जुड़ने को तैयार थे। जो सक्षम थे उनसे मदद ली गई, जो तन-मन समर्पित कर सकते थे उन्हें व्यवस्था में हिस्सेदार बनाया गया, और इसी के साथ दवा कम्पनियों के आला अधिकारियों का भी जब साथ मिल गया तो गाड़ी आसानी से फुल स्पीड में दौड़ पड़ी।

वंचितों के लिए उम्मीद
महज एक पखवारे में पीलीभीत के अलग-अलग हिस्सों में अब तक चार जगहों पर इस तरह के स्वास्थ्य कैम्प लगाये जा चुके हैं। हर कैम्प में तकरीबन 1000 लोगों के पर्चे बने। इससे अंदाजा लग रहा है कि हर कैम्प तकरीबन 5000 की आबादी को फौरी राहत पहुंचाने में कामयाब हो रहे हैं। फिलहाल, इस पूरे अभियान को दो पार्ट में चलाने का इरादा बनाया गया है। पहले दौर में ज्यादा पिछड़े और जरूरतमंद इलाकों को चुना जा रहा है, और तय हुआ है कि इस तरह के ढाई दर्जन स्वास्थ्य कैम्प इन इलाकों में लगा दिये जायें। और दूसरे दौर में बाकी पीलीभीत को कवर कर ‘बीमारी से आजादी’ अभियान से फायदे की समीक्षा की जाये।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *